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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
जलपरमाणूनामपि भूतभाविवह्निपरिमाणापेक्षया वह्निरूपताप्यस्त्येव 1 तथा तप्तोदके कथञ्चिद्वह्निरूपतापि जलस्याङ्गीक्रियत एव ७ । प्रत्यक्षादिबुद्धी प्रतिभासमानयोः सत्त्वासत्त्वयोः का नाम प्रमाणबाधा । न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, अन्यथा सर्वत्रापि तत्प्रसङ्गः ८ । प्रमाणप्रसिद्धस्य च नाभावः कल्पयितुं शक्यः, अतिप्रसङ्गात् प्रमाणादिव्यवहारविलोपश्च स्यादिति ९ ।
२५०/८७३
व्याख्या का भावानुवाद :
शंका : सत्त्व में सत्त्वान्तर की कल्पना करने से "धर्मो के धर्म होते नहीं है ।" यह आपके पूर्वप्रतिपादित वचन का विरोध आता है । (क्योंकि सत्त्व भी वस्तु का धर्म है और सत्त्वान्तर भी धर्म है । इसलिए सत्त्वरुप धर्म में सत्त्वान्तर की कल्पना करने से तादृशनियम के साथ विरोध आता है ।)
समाधान: ऐसा नहि कहना । आप लोग अभी स्याद्वाद रुप अमृत के रहस्यो को जानते ही नहीं है । क्योंकि स्वधर्मी की अपेक्षा से जो सत्त्वादि धर्म है, वही सत्त्वादि स्व-धर्मान्तर की अपेक्षा से धर्मी है । अर्थात् जो सत्त्वादि अपने आधारभूत वस्तु की अपेक्षा से धर्म है। वे अपने में रहनेवाले दूसरे धर्मों के धर्मी भी होते है। इसी तरह से ही प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक वस्तु के अंश में धर्म और धर्मी रुप से अनेकांतात्मकता है। इस अनुसार से मानने से ही अनेकांतात्मकता की व्यवस्था संगत होती है ।
इसलिए सत्त्व में सत्त्वान्तर की कल्पना में सत्त्व धर्मी बनता है और सत्त्वान्तर धर्म बनता है । इस अनुसार से धर्मी को ही धर्मरुप से और धर्म को ही धर्मीरुप से स्वीकार करने से पूर्वोक्त किसी दोष का अवकाश रहता नहीं है ।
इस अनुसार से धर्म को भी धर्मान्तर की अपेक्षा से धर्मी मानने में अनवस्था दोष नहीं है। क्योंकि जैसे दिवस और रात्रि का प्रवाह अनादि अनंत है। बीज से अंकुर - अंकुर से बीज, पुनः बीज से अंकुर, इस तरह का प्रवाह भी अनादि अनंत है। अभव्य का संसार परिभ्रमण अनादि अनंत है। वैसे धर्म और धर्मी के व्यवहार की परंपरा भी चलती है। (जो ज्ञान जीव का धर्म है, वह ज्ञान अपने में रहे हुए सत्त्व की अपेक्षा से धर्मी है। वैसे सत्त्व ज्ञान की अपेक्षा से धर्म होने पर भी अपने में रहे हुए प्रमेयत्व की अपेक्षा से धर्मी है । इस तरह से धर्म-धर्मीव्यवहार अनादि अनंत है ।) इस तरह से नित्य- अनित्य, भेद - अभेद आदि धर्मो की व्यवस्था में भी विचार करें ।
भिन्न अधिकरणो में रहने के कारण इत्यादि कहकर "वैयधिकरण्य" दोष दिया था, वह भी असत्य है । क्योंकि निर्बाधप्रत्यक्ष बुद्धि में सत्त्व और असत्त्व का एक अधिकरण (समानाधिकरण) प्रतिभास होता है ।
वैसे प्रकार के एक उभय के प्रतिभास में भी वैयधिकरण्य की कल्पना करना उचित नहीं है । क्योंकि वैसे तो एक आम के फल में रुप और रस के साथ होने पर भी रुप और रस का वैयधिकरण्य मानना पडेगा । अर्थात् सत्त्व और असत्त्व धर्म एक ही स्थान पे प्रतीत होने पर भी दोनो में वैयधिकरण्य मानोंगे तो एक ही
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