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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन
कथं ततो निवृत्तिस्तु महाफलेति व्याहतमेतत् ४ । वेदविहिता हिंसा धर्महेतुरित्यत्र प्रकट एव स्ववचनविरोधः, तथाहि-धर्महेतुश्चेद्धिसा कथं ? हिंसा चेद्धर्महेतुः कथम् ? न हि भवति माता च वन्ध्या चेति । धर्मस्य च लक्षणमिदं श्रूयते । “ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् | 19 || ” [ चाणक्य ० १/७ ] इत्यादि अर्चिर्मार्गप्रपन्नैर्वेदान्तवादिभिर्गर्हिता चेयं हिंसा । " अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति । 19 ।। " इति - 42 ।। तथा भवान्तरं प्राप्तानां तृप्तये च श्राद्धादिविधानं तदप्यविचारितरमणीयम् । तथा च तद्यूथिनः पठन्ति । “मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् । तन्निर्वाणप्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् इति ।।१।।” ५ ।। एवमन्यान्यपि पुराणोक्तानि पूर्वापरविरुद्धानि संदेहसमुच्चयशास्त्रादत्रावतार्य वक्तव्यानि 1 तथा नित्यपरोक्षज्ञानवादिनो भट्टाः स्वात्मनि क्रियाविरोधाज्ज्ञानं स्वप्रकाशकमभ्युपगच्छन्तः प्रदीपस्य परं (स्व) प्रकाशकमनङ्गीकुर्वन्तश्च कथं सद्भूतार्थभाषिणः 1 तथा ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मात्रं प्रत्यक्षात्प्रतियन्तोऽपि न निषेधकं प्रत्यक्षमिति ब्रुवाणाः कथं न विरुद्धवादिनः, अविद्यानिरासेन सन्मात्रस्य ग्रहणात् 1 तथा पूर्वोत्तरमीमांसावादिनः कथमपि देवमनङ्गीकुर्वाणा अपि सर्वेऽपि ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादीन्देवान्पूजयन्तो ध्यायन्तो वा दृश्यन्ते । तदपि पूर्वापरविरुद्धम् इत्यादि ।
व्याख्या का भावानुवाद : मीमांसको के मत में इस अनुसार से स्ववचनविरोध है ।
वेद में एक स्थान पे “किसी भी प्राणी की हिंसा करनी नहीं चाहिए। कभी भी हिंसक बनना नहीं ।" ऐसा अहिंसकवाक्यो का विधान करके, दूसरे स्थान पे " श्रोत्रिय ब्राह्मण के आतिथ्य के लिए सांढ या बडे बकरे का भी उपयोग करे" - ऐसा कथन किया गया है। वह क्यों पूर्वापरविरोध न कहा जाये ? एक ओर हिंसविधान करना और दूसरी ओर अहिंसकविधान करना वह परस्परविरुद्ध ही है।
उस अनुसार से ही "किसी भी जीव की हिंसा मत करना ।" ऐसा कहकर बाद में उनके शास्त्र में कहा कि अश्वमेघयज्ञ के मध्यमदिन में तीन कम ऐसे छः सौ = ५९७ पशुओ का वध करना चाहिए । "प्रजापति यज्ञ संबंधी सत्रह पशुओ का वध करना चाहिए" और " अग्निषोम यज्ञसंबंधी पशुओ का वध करना चाहिए.." इत्यादि वचन कहे गये है । तो किस तरह से पूर्वापरविरोध नहीं है ? (१)
इस तरह से प्रथम असत्यभाषण का निषेध करके बाद में "ब्राह्मण के लिए असत्य बोलना चाहिए” – इत्यादि तथा "हे राजन्, मजाक में बोला जाता, स्त्रीओ के विलास में प्रयोजित किया जाता, विवाहकाल में प्रयोजित होता, कोई प्राण का नाश करने आये तब बोला जाता और कोई
(G-42) तु० पा० प्र० प०
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