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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६९, मीमांसक दर्शन
कामसेवन आदि विकारो में व्याकुल चित्तवाले उनमें सर्वज्ञता संभवित नहीं है ।
उपरांत प्रत्यक्षादि प्रमाणपंचक से भी सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती नहीं है । प्रत्यक्ष तो असंबद्ध तथा अवर्तमान सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध कर सकता नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण तो इन्द्रियो से संबद्ध और वर्तमानकालीन पदार्थ को ही ग्रहण कर सकता है। यहाँ सर्वज्ञत्व किसी इन्द्रिय से संबंध रखता नहीं है कि जिससे उसका प्रत्यक्ष होगा ।
अनुमान भी सर्वज्ञताका साधक नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष से देखे हुए अर्थ में ही अनुमान की प्रवृत्ति होती है। (जैसे कि पर्वत के उपर धूम का प्रत्यक्ष होने से, धूमलिंग द्वारा वह्नि का अनुमान होता है । परन्तु यहाँ मनुष्य में सर्वज्ञत्व प्रत्यक्ष से असिद्ध होने से उसमें अनुमान की प्रवृत्ति संभवित नहीं है। अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है।
आगम प्रमाण से भी सर्वज्ञता की सिद्धि होती नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञता ही असिद्ध होने से वह सर्वज्ञ का आगम भी विवादास्पद है, ऐसे विवादास्पद आगम से सर्वज्ञ की सिद्धि किस तरह से हो सकती है ?
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उपमानप्रमाण से भी सर्वज्ञता की सिद्धि होती नहीं है। क्योंकि दूसरे सर्वज्ञ व्यक्ति का अभाव है। दूसरा कोई सर्वज्ञ दिखाई देता हो, तो सादृश्यज्ञान से उपमान द्वारा सर्वज्ञता की सिद्धि हो सके, परंतु दूसरे किसी सर्वज्ञ का अभाव होने से सादृश्यज्ञान के अभाव के कारण सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं हो सकेगी ।
अर्थापत्ति से भी सर्वज्ञता की सिद्धि होती नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञता का साधक अन्यथा अनुपपन्न = अविनाभावी पदार्थ जगत में देखने को मिलता नहीं है ।
इसलिए सर्वज्ञता की सिद्धि में प्रमाणपंचक की प्रवृत्ति न होने से सर्वज्ञता अभावप्रमाण का ही विषय बनती है। अर्थात् सर्वज्ञ ही नहीं है। अनुमान प्रयोग : "सर्वज्ञ ही नहीं है क्योंकि वह सदुपलंभक प्रत्यक्षादि प्रमाणो का विषय बनता नहीं है । जैसे कि, खरगोस का सींग |" ॥६८॥
यदि देवस्तद्वचनानि च न सन्ति, तर्हि कुतोऽतीन्द्रियार्थज्ञानमित्याशंक्याह
यदि सर्वज्ञ देव और सर्वज्ञदेव प्ररुपित वचनो के संग्रहरूप आगम नहीं है तो अतीन्द्रिय पदार्थो का परिज्ञान किससे होगा ? इस शंका का परिहार करते हुए मीमांसक कहते है कि.....
(मू. श्लो.) तस्मादतीन्द्रियार्थानां साक्षाद्द्रष्टुरभावतः ।
नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो यथार्थत्वविनिश्चयः ।। ६९ ।।
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श्लोकार्थ : (जिस कारण से सर्वज्ञ देव नहीं है ।) उस कारण से अतीन्द्रियपदार्थो के साक्षात् द्रष्टा उपलब्ध होते नहीं है। इसलिए ही नित्यवेदवाक्यो से अतीन्द्रियपदार्थो का यथार्थरुप से निश्चय होता है | ॥६९॥ व्याख्या- तस्मात्-ततः कारणात् कुतो हेतुत इत्याह । अतीन्द्रियार्थानां इन्द्रियविषयातीतपदार्थानामात्मधर्माधर्मकालस्वर्गनरकपरमाणुप्रभृतीनां
साक्षात्-स्पष्टप्रत्यक्षावबोधेन
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