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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ८७, उपसंहार
व्याख्या-साध्यं ध्यानं द्वेधा, उपादेयं हेयं च । उपादेये धर्मशुक्लध्यानयुगे ये चार्तरौद्रध्यानयुगे । अथवा साध्ये - साधनीये कार्ये, उपादेये पुण्यकृत्ये तपःसंयमादौ, हेये च पापकृत्ये विषयसुखादिके क्रमेण वृत्तिनिवृत्तिभ्यां प्रवर्तननिवर्तनाभ्यां जने लोके या प्रीतिः मनः सुखं जायते समुत्पद्यते सा तेषां चार्वाकाणां मते निरर्था - निःप्रयोजना निःफलाऽतात्त्विकीत्यर्थः । हिर्यस्मात् धर्मः कामात्- विषयसुखसेवनान्न परः काम एव परमो धर्मः, तज्जनितमेव च परमं सुखमिति भावः । अथवा ये धर्मप्रभावादिह लोकेऽपीष्टानिष्टकार्ययोः सिद्ध्यसिद्धीः वदन्ति तान्प्रति यच्चार्वाका जल्पन्ति तद्दर्शयन्नाह“साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां” इत्यादि । तपोजपहोमादिभिः साध्यस्य-प्रेप्सितकार्यस्य या वृत्तिःसिद्धिर्या च तैरेव तपोजपादिभिरनिष्टस्य साध्यस्य विघ्नादेर्निवृत्तिः - असिद्धिरभाव इति यावताभ्यां साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या जने प्रीतिर्जायते सा निरर्था । अर्थशब्दस्य हेत्वर्थस्यापि भावान्निर्हेतुका निर्मूला । तेषां मते हिर्यस्माद्धर्मः कामान्न पर इति प्राग्वत् ।। ८६ ।।
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व्याख्या का भावानुवाद :
साध्य-ध्यान दो प्रकार का है । उपादेय और हेय । धर्मध्यान और शुक्लध्यान उपादेय है तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान हेय है। अथवा साधनीय कार्य में तपसंयमादि उपादेय पुण्यकार्यो से प्रवृत्ति करने से तथा हेयरुप विषयसुखादि पापकृत्यों में से निवृत्ति होने से लोगो को जो जो आत्मिक सुख - मानसिक सुख प्राप्त होता है वह चार्वाकमत में निरर्थक है । निष्प्रयोजन- निष्फल और अत्तात्विक है । उनके मतानुसार कामभोग के सेवन से दूसरा श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है और विषयसेवन से प्राप्त होता सुख ही श्रेष्ठ है ।
वैसे ही जो लोग धर्म के अभाव से इस लोक में इष्टकार्य की सिद्धि और अनिष्टकार्य की असिद्धि कहते है, उन लोगो को प्रति चार्वाक कहते है कि... तप आदि के द्वारा इच्छित कार्य की जो सिद्धि तथा तप, जपादि के द्वारा अनिष्टरुप विघ्नो की निवृत्ति - असिद्धि होती है, वह साध्यवृत्ति और अनिष्ट निवृत्ति के द्वारा लोगो में जो प्रीति उत्पन्न होती है वह निरर्थक है । उनके मत में भोगसेवन से श्रेष्ठ धर्म नहीं है | ॥८६॥
उपसंहरन्नाह - चार्वाकमत का उपसंहार करते हुए कहते है कि -
(मू. श्लो.) लोकायतमतेऽप्येवं सङ्क्षेपोऽयं निवेदितः । अभिधेयतात्पर्यार्थः पर्यालोच्यः सुबुद्धिभिः ।। ८७ ।।
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श्लोकार्थ : इस अनुसार से लोकायत मत का भी संक्षेप बताया। बुद्धिमान पुरुषो के द्वारा प्रत्येक दर्शन के अभिधेय तात्पर्यार्थ को सोचना चाहिए | ॥८७॥
व्याख्या -एवं- अमुना प्रकारेण अपेः समुच्चयार्थत्वान्न केवलमन्यमतेषु सङ्क्षेप उक्तो लोकायतमतेऽप्ययमनन्तरोक्तः सङ्क्षेपो निवेदितः । ननु बौद्धादिमतेषु सर्वेष्वपि सङ्क्षेप
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