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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ८७, उपसंहार
शास्त्रो को निपुणबुद्धिवालो ने देखना चाहिए। यह सूत्रग्रंथ तो केवल संक्षिप्तरुचिवाले जीवो के अनुग्रह के लिए है।
अथवा सर्वदर्शनो के पदार्थो के परस्पर विरोध को सुनकर किंकर्तव्यमूढ बने हुए जीवो को जो करने योग्य है, वह उपदेश देते हुए ग्रंथकार श्री कहते है कि-सर्वदर्शन द्वारा प्रतिपादित पदार्थ के तात्पर्यार्थ को =सत्यासत्य के विभाग के द्वारा व्यवस्थापित तत्त्वार्थ को उन्हे सोचना चाहिए । तथा उन पदार्थो का अच्छी तरह से विचार करना चाहिए। केवल उन्होंने कहा, उस प्रकार से विचार किये बिना ग्रहण करने योग्य नहीं है। मार्गानुसारि पक्षपातरहित बुद्धिवालो के द्वारा कि जो दुराग्रहो से मुक्त है, उनके द्वारा सर्वदर्शन के वाच्यार्थ को मध्यस्थभाव से विचार करके सत्यासत्य का विवेक करना चाहिए । दुराग्रही मनुष्य मध्यस्थता से सोच नहीं सकता है। जिससे कहा भी है कि, दुराग्रही व्यक्ति जिस मत में अपनी बुद्धि स्थित हो गई हो वहा युक्तिओ को खिंचने की इच्छा करता है और मध्यस्थचित्तवाला व्यक्ति जिसमें युक्ति होती है, वहाँ मति को स्थिर करता है। अर्थात् कदाग्रही व्यक्ति अपनी मान्यता की आग्रही मतिवाला होने से अपनी मान्यता अनुसार युक्तिओ को लडाया करता है। जब कि मध्यस्थ चित्तवाले व्यक्ति जिस पदार्थ में युक्ति स्थिर हो अर्थात् युक्ति से जो पदार्थ सिद्ध होता हो, वहाँ अपनी मति को स्थिर करता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि, सर्वदर्शनो के परस्परविरुद्ध मत को सुनकर किंकर्तव्यमूढ बने हुए जीव यदि सर्वदर्शनो को सच मानकर उनको मानने की इच्छा करे तो या अपने दर्शन का पक्षपात खडा रखकर उसको मानने की इच्छा रखे तो, उनके लिए स्वर्ग या मोक्ष दुर्लभ है। इसलिए मध्यस्थवृत्ति से सत्यासत्य के विभाग द्वारा तात्त्विकपदार्थ सोचना चाहिए। सत्यासत्य का विचार करके श्रेयस्कर मार्ग स्वीकृत करना चाहिए और उस मार्ग में कुशलबुद्धिवालो को प्रयत्न करना चाहिए। ।।८७।।
॥ इस अनुसार से तपागच्छरुप गगनमंडप में सूर्य जैसे तेजस्वी श्री देवसुंदरसूरीश्वरजी महाराजो के चरणसेवी श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजा विरचित षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में जैमिनिदर्शन और चार्वाकमत के स्वरुप निर्णय नाम का छट्ठा अधिकार भावानुवाद सहित पूर्ण होता है । इस तरह से वह समाप्त होने से तर्करहस्य दीपिका नाम की षड्दर्शन समुच्चय ग्रंथ की टीका भी सानुवाद सानंद पूर्ण होती है।
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