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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ २. शरीर पर्याप्ति :- रसके योग्य पुद्गलों को जो शक्ति द्वारा जीव शरीररूप से सात धातुरूप से रचना करे, वह शक्ति वह शरीर पर्याप्ति । (यहाँ शरीर, काय योग प्रवृत्ति में समर्थ हो तब तक की जो शरीर रचना । बाद में पर्याप्ति की (शक्ति की) समाप्ति होती है । और वह सामर्थ्य अन्तर्मुहूर्त तक शरीर योग्य पुद्गलों को प्राप्त करने से प्रकट होता हैं।) ____३. इन्द्रिय पर्याप्ति :- रस रूप से अलग पडे हुए पुद्गलों मे से, उपरांत सात धातुमय शरीर रूप से रचे हुए पुद्गलों मे से भी इन्द्रिय योग्य पुद्गल ग्रहण करके इन्द्रियपन से परिणमन कराने की जो शक्ति, वह इन्द्रिय पर्याप्ति (शरीर पर्याप्ति समाप्त होने के बाद भी दूसरे अन्तर्मुहूर्त तक पाये हुए इन्द्रिय पुद्गलो से रची जाती अभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय जब विषयबोध करने में समर्थ होती है, तब यह इन्द्रिय पर्याप्ति की समाप्ति होती है ।)
४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति :- जो शक्ति द्वारा श्वासोच्छवास योग्य वर्गणा के पुद्गल ग्रहण करके श्वासोच्छ्रवास रूप में परिणमन कराके, उसका अवलंबन लेकर, विसर्जन करे, उस शक्ति का नाम श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति हैं । (इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद भी तीसरे अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण की हुई श्वासोच्छ्वास वर्गणा को श्वासोच्छ्वास रूप से परिणमन कराने में उपकारी पुद्गलो से जब जीव श्वासोच्छ्वास क्रिया में समर्थ होता है, तब इस पर्याप्ति की समाप्ति होती है ।) ___५. भाषा पर्याप्ति :- जीव जो शक्ति के द्वारा भाषा योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणमन कराके, अवलंबन लेकर, विसर्जन करे, उस शक्ति का नाम भाषा पर्याप्ति । (श्वासो. पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद भी चौथे अन्तमुहूर्त तक ग्रहण किये हुए (भाषा पुद्गलो को भाषा रुप में परिणमन कराने में उपकारी) पुद्गलो से जीव जब वचनक्रिया में समर्थ होता हैं, तब इस पर्याप्ति की समाप्ति होती हैं ।)
६. मन:पर्याप्ति :- जब जो शक्ति के द्वारा मनः प्रायोग्य पुद्गलो को ग्रहण करके मन रूप में परिणमन कराके, अवलंबन लेकर, विसर्जन करे, उस शक्ति का नाम मन:पर्याप्ति । (भाषा पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद भी पाँचवें अन्तर्मु० तक ग्रहण किये हुए (मनोयोग्य पुद्गलो को मनरूप में परिणमन कराने में (समर्थ) पुद्गलो से जीव जब विषय चिंतन में समर्थ हो तब इस पर्याप्ति की समाप्ति हुई मानी जाती हैं ।)
देवादिक के पर्याप्तियों का क्रम :- इस प्रकार मनुष्य-तिर्यंच को आहार पर्याप्ति १ समय में और शेष पांच पर्याप्तियाँ क्रमशः अन्तर्मुहर्त-अन्तर्मुहूर्त काल में समाप्त होती है और देव-नारक संबंधि तथा उत्तरवैक्रिय और आहारक शरीर संबंधि पर्याप्तियों में - आहार पर्याप्ति प्रथम समय में शरीर पर्याप्ति उसके बाद अन्तर्मुहूर्त पर और शेष चार पर्याप्तियाँ क्रमशः एक एक समय के अन्तर पर समाप्त होती हैं । उपरांत, श्री भगवतीजी आदिक में तो देव को भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति की समकाल में समाप्ति होने की अपेक्षा से देव को पाँच पर्याप्ति कही हैं ।
पर्याप्तियाँ पुद्गल स्वरूप हैं :- श्री तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि, "पर्याप्तियाँ पुद्गल रूप है, और वह कर्तारूप आत्मा का करण (साधन) विशेष हैं, कि जो करण विशेष द्वारा आत्मा को आहार ग्रहणादि सामर्थ्य उत्पन्न होता है और वह करण जो पुद्गलों के द्वारा रचा जाता है, उस आत्माने ग्रहण किये हए पदगल कि जो तथा प्रकार की परिणतिवाले हैं, वही पर्याप्ति शब्द द्वारा कहे जाते हैं । (अर्थात् उस पुद्गलों का ही नाम पर्याप्ति
लब्धि अपर्याप्त इत्यादि ४ भेद :- पर्याप्तियाँ समाप्त होने के काल के विषय में जीव के भी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो मुख्य भेद हैं । वहाँ जो जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करने के बाद मृत्यु को प्राप्त करे, वह जीव पर्याप्त कहा जाता हैं और निर्धनने किये हुए मनोरथो की तरह जो जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण किये बिना मृत्यु प्राप्त करे, ऐसा जीव अपर्याप्त कहा जाता हैं । वे पर्याप्तपन प्राप्त होना वह पर्याप्त नामकर्म के उदय से होता हैं और अपर्याप्त नामकर्म के उदय से जीव
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