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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ आकारवाली ऐसी अभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप रसनेन्द्रिय हैं । तथा अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी पतली, लंबी, चौडी, चक्षु अदृष्ट ऐसी नासिका के अन्दर रही हुई पडघम के आकारवाली अभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप घ्राणेन्द्रिय हैं । तथा घ्राणेन्द्रिय जैसे प्रमाणवाली, चक्षु से अदृष्ट ऐसे चक्षु की पुतली के तारे में रही हुई और चन्द्राकृतिवाली अभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप चक्षुरिन्द्रिय हैं । तथा उतने ही प्रमाणवाली श्रोत्रेन्द्रिय भी हैं परन्तु वह कर्णपर्पटिका के (कर्णपटल के) छिद्र में ही हुई और कदंबपुष्प के आकारवाली हैं । इस प्रकार विषयबोध ग्रहण करनेवाली ये पाँचों इन्द्रियों अभ्यन्तर रचना (आकार) वाली होने से अभ्यन्तर निर्वृत्ति कही जाती हैं और चक्षु से दिखाई देती ( दृश्यमान) जिह्वादि ४ इन्द्रियाँ वह बाह्य रचना (आकार) वाली होने से बाह्य निर्वृत्ति इन्द्रिय कही जाती है, वह विषय बोध नहीं कर सकती ।
३. बल प्राण (योग प्राण) मन, वचन और काया के निमित्त से प्रवर्तित जीव का व्यापार वह योग । इस योग का बल का अर्थ स्पष्ट हैं ।
२. उच्छ्वास प्राण :- जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल ग्रहण करके उनको श्वासोच्छ्वास रूप से परिणमन कराके, अवलंबन लेकर श्वासोच्छ्वास लेते छोडते हुए जो श्वासोच्छ्वास चलता हैं, वह श्वासोच्छ्वास प्राण कहा जाता हैं । घ्राणेन्द्रियवाले जीवो को जो श्वासोच्छ्वास घ्राणेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है और स्पष्ट दिखता हैं, वह बाह्य उच्छ्वास हैं परन्तु उसका ग्रहण प्रयत्न और श्वासोच्छ्वास का परिणमन तो सर्व आत्मप्रदेश में होता हैं, वह अभ्यन्तर उच्छ्वास हैं और वह स्थूल दृष्टि से उपलब्ध नहीं होता हैं । जो जीवो को नासिका नहीं है वे नासिका के बिना भी सर्व शरीर प्रदेश में श्वासोच्छ्वास के पुद्गल ग्रहण करके सर्व शरीर प्रदेश में श्वासोच्छ्वास रूप से परिणमन कराते है । और अवलंबन करके विसर्जन करते है । नासिका रहित जीवो को १ अभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास होता हैं । और वह अव्यक्त हैं तथा नासिकावाले जीव को तो दोनों प्रकार का श्वासोच्छ्वास होता हैं । यह श्वासोच्छ्वास चालू होता हैं, तब “जीव हैं, जीवित है" ऐसा प्रतीत होता हैं इसलिए उस जीव के बाह्य लक्षण रूप द्रव्य प्राण हैं ।
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आयुष्यप्राण-आयुष्य कर्म के पुद्गल वह द्रव्य आयुष्य और उस पुद्गलो के द्वारा जीव जितने काल तक नियत (अमुक) भव में टिक सके, उतने काल का नाम काल आयुष्य है । जीव को जीने में ये आयुष्य कर्म के पुद्गल ही (आयुष्य का उदय ही) मूल-मुख्य कारणरूप है । आयुष्य के पुद्गल समाप्त होने पर आहारादि अनेक साधनो के द्वारा भी जीव जी नहीं सकता । ये दो प्रकार के आयुष्य में जीव को द्रव्य आयुष्य तो अवश्यपूर्ण करना ही पडता है और काल आयुष्य तो पूर्ण करे अथवा न करे । क्योंकि वह द्रव्य आयुष्य यदि अनपवर्तनीय (अर्थात् किसी भी उपाय से द्रव्य आयुष्य शीघ्र क्षय न हो ऐसा ) हो, तो संपूर्ण काल में मृत्यु को प्राप्त करे और यदि अपवर्तनीय (शस्त्रादिक के आघात इत्यादि से द्रव्य आयुष्य शीघ्र क्षय पाने के स्वभाववाला) हो, तो अपूर्ण काल में मृत्यु प्राप्त करे, परन्तु द्रव्यायुष्य तो संपूर्ण करके ही मृत्यु को प्राप्त करता है ।
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किस जीव को कितने प्राण होते हैं ? - सर्व एकेन्द्रिय जीवो को स्पर्शेन्द्रिय, कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ये ४ प्राण होते हैं । द्वीन्द्रिय जीवो को रसनेन्द्रिय तथा वचन बल अधिक होने से ६ प्राण होते हैं, त्रीन्द्रिय को घ्राणेन्द्रिय अधिक होने से ७ प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय को चक्षुरिन्द्रिय अधिक होने से ८ प्राण, असंज्ञिपंचेन्द्रिय को श्रोत्रेन्द्रिय अधिक होने से ९ प्राण और संज्ञिपंचेन्द्रिय को मनः प्राण अधिक होने से १० प्राण होते हैं ।
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अपर्याप्ता जीवो को (लब्धि अपर्याप्ता जीवो को) उत्कृष्ट से ७ प्राण होते हैं और जघन्य से ३ प्राण होते हैं । वहाँ अपर्याप्ता एकेन्द्रिय को ३ प्राण और अपर्याप्त पंचेन्द्रिय को ७ प्राण होते हैं। शेष जीवो को यथासंभव सोचे । क्योंकि
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