________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ८४, लोकायतमत
व्याख्या-पृथिव्यादीनि-पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणानि यानि भूतानि तेषां संहतिः - समवायः संयोग इति यावत् तया हेतुभूतया । तथा तेन प्रकारेण या देहस्य परीणतिः- परिणामस्तस्याः सकाशात् चिदिति प्रयोगः । यद्वद्यथा सुराङ्गेभ्यो- गुडधातक्यादिभ्यो मद्याङ्गेभ्यो मदशक्ति:उन्मादकत्वं भवति, तद्वत्तथा चित् चैतन्यमात्मनि - शरीरे । अत्रात्मशब्देनानेकार्थेन शरीरमेव ज्ञातव्यं, न पुनर्जीवः । अयं भावः- भूतचतुष्टयसंबन्धाद्देहपरीणामः, ततश्च देहे चैतन्यमिति । अत्र परीणतिशब्दे घञ्भावेऽपि बाहुलकादुपसर्गस्य दीर्घत्वं सिद्धम् । पाठान्तरं वा । “पृथ्व्यादिभूतसंहत्यां तथा देहादिसंभव: । मदशक्ति: सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तद्वत्स्थितात्मता ।।” पृथिव्यादिभूतसंहत्यां सत्यां, तथा शब्दः पूर्वश्लोकापेक्षया समुच्चये, देहादिसंभव: 1 आदिशब्दाद्भूभूधरादयो भूतसंयोगजा ज्ञेयाः I सुराङ्गेभ्यो यद्वन्मदशक्तिर्भवति, तद्वद्-भूतसंबन्धाच्छरीर आत्मता - सचेतनता स्थिता-व्यवस्थि । यदुवाच वाचस्पतिः “पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरविषयेन्द्रियसंज्ञा :-14, तेभ्यश्चैतन्यं” इति ।। ८४ ।।
३८४ /२००७
व्याख्या का भावानुवाद :
पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु ये चार भूतो के संयोगरुप हेतु से देहाकार परिणमन होता है। (उसमें चैतन्य उत्पन्न होता है।) जैसे महुडे, गुड आदि दारु (शराब) की सामग्री से मदशक्ति = उन्मादत्व उत्पन्न होता है, वैसे चार भूतो के संयोग से देहाकार परिणमन से शरीर में चैतन्य उत्पन्न होता है । यहीं आत्मा का अर्थ शरीर ही जानना, जीव नहीं । तात्पर्य यह है कि, चार भूतो के संबंध से देह परिणमन और उससें देह में चैतन्य उत्पन्न होता है। यहाँ परीणति शब्द में "परि" उपसर्ग का विकल्प से दीर्घ हुआ है।
इस श्लोक का इस अनुसार से पाठान्तर भी मिलता है। "पृथ्व्यादिभूतसंहत्यां तथा देहादिसंभव । मदशक्ति सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तद्वत्स्थितात्मता ॥ " (यहाँ " तथा " शब्द पूर्व श्लोक की अपेक्षा से समुच्चयार्थक है। अब श्लोक का अर्थ इस प्रकार होगा - पृथ्वी आदि चार भूतो का संयोग होने से देहादि की उत्पत्ति होती है । आदि शब्द से पृथ्वी, पर्वत आदि स्थूलजगत भी भूतसंयोग से उत्पन्न होता है, ऐसा जानना । महुडे आदि दारु (शराब) की सामग्री से जैसे मदशक्ति उत्पन्न होती है, वैसे भूतो के संयोग से शरीर में सचेतनता स्थित होती है - उत्पन्न होती है। श्रीवाचस्पतिने (भी इस विषय में ) कहा है कि..... . पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु ये चार तत्त्व है। उसका समुदाय = विशिष्टसंयोग से शरीर, इन्द्रिय और विषयसंज्ञक पदार्थ उत्पन्न होते है। उससे नित्य चैतन्य उत्पन्न होता है | ॥८४॥
एवं स्थिते यथोपदिशन्ति तथा दर्शयन्नाह
इस अनुसार से तत्त्व का निरुपण करके चार्वाक जिस प्रकार का उपदेश देते है, वह बताते हुए कहते है -
(H-14) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org