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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ८४, लोकायतमत
३८३/१००६
श्लोकार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु यह भूतचतुष्टय ही तत्त्व है। उसका आधार पृथ्वी है। प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है। ॥८३॥ ___ व्याख्या-“किंच" इत्यभ्युञ्चये । पृथ्वी-भूमिः, जलं-आपः, तेजो-वह्निः, वायुः-पवनः, भूतचतुष्टयम् । एतानि भूतानि चत्वारि आधारो भूमिरेतेषां-भूतानामाधारो-ऽधिकरणं भूमिः-पृथ्वी । “चैतन्यभूमिरेतेषां” इति पाठे तु चतुष्टयं किंविशिष्टं चैतन्यभूमिःचैतन्योत्पत्तिस्थानम्, भूतानि संभूयैकं चैतन्यं जनयन्तीत्यर्थः । एतेषां-चार्वाकाणां मते “प्रमाणभूमिरेतेषां” इति पाठान्तरे तु भूतचतुष्टयं प्रमाणभूमिः-प्रमाणगोचरस्तात्त्विक एतेषां मते । मानं तु-प्रमाणं पुनरक्षजमेव-प्रत्यक्षमेवैकं न पुनरनुमानादिकं प्रमाणम् । हिशब्दोऽत्र विशेषणार्थो वर्तते । विशेषः पुनश्चार्वाकैलॊकयात्रानिर्वाहप्रवणं धूमाद्यनुमानमिष्यते क्वचन न पुनः स्वर्गादृष्टादिप्रसाधकमलौकिकमनुमानमिति ।।८३ ।।
व्याख्या का भावानुवाद : श्लोक में "किंच" अभ्युच्चयार्थक है। अर्थात् “उपरांत" अर्थ में इस्तेमाल होता है। उपरांत, पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु, यह भूतचतुष्टय है। उन चार भूतो का आधार पृथ्वी है। परन्तु जब "चैतन्यभूमिरेतेषां" - यह पाठ हो, तब इस अनुसार से अर्थ करना, "चार भूत चैतन्य के उत्पत्तिस्थान है।" इस चार्वाकमत में चैतन्य का उत्पत्तिस्थान चार भूत है। उपरांत, "प्रमाणभूमिरेतेषां" यह पाठ हो, तब इस अनुसार से अर्थ करना-चार्वाकमत में प्रमाण के विषय चार है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु । वही तत्त्व है - प्रमेय है। उसकी ही वास्तविक सत्ता है। चार्वाकमत में प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमानादि प्रमाण नहीं है । अर्थात् चार्वाकमत में इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है। अनुमानादि नहीं है। “हि" शब्द विशेषकथन के लिए है। वैसे ही यहाँ विशेष बात यह है कि.... चार्वाक लोग व्यवहार का निर्वाह करने के लिए धूम आदि से अग्नि आदि लौकिकपदार्थो के अनुमान को प्रमाण के रुप में मानते है। परन्तु स्वर्ग, अदृष्ट आदि अतीन्द्रियपदार्थो के अनुमान को प्रमाण मानते नहीं है। ॥८३॥ अथ भूतचतुष्टयीप्रभवाद्देहे चैतन्योत्पत्तिः कथं प्रतीयताम् ? इत्याशंक्याह -
अब चार भूतो से उत्पन्न हुए शरीर में चैतन्य की उत्पत्ति किस तरह से होती है ? ऐसी शंका के समाधान में कहते है कि... (मू. श्लो.) पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देहपरीणतेः ।
मदशक्तिः सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तद्वञ्चिदात्मनि ।।८४ ।। श्लोकार्थ : महुडे, गुड आदि के संयोग से जैसे स्वयंमेव (अपनेआप) मदशक्ति उत्पन्न होती है, वैसे पृथ्वी आदि चार भूत के संयोग से देहाकार परिणमन से शरीर में चित्शक्ति-चैतन्य स्वयंमेव उत्पन्न होता है। ।।८४||
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