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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ८२, लोकायतमतः
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उपादेय की असंगत बात करके संकट में डालते तथा अत्यंत मुग्धता-धार्मिक व्यामोह को उत्पन्न करने वाले वादिओं का वचन अच्छे लोगो के लिए उपेक्षणीय है। (उसके बाद वह स्त्री पति के इन वचनो को सुनकर सब सच मानने लगी और यथेच्छभोगो में प्रवृत्ति करने लगी।) पेज नंबर ३७९ बाकी छे.
कुछ स्थान पे "यद् वदन्ति बहुश्रुताः" इस अनुसार से पाठ है, उस पाठ अनुसार इस प्रकार की व्याख्या करना लोकप्रसिद्ध बहुश्रुत कि, जो वृकपद के विषय में सम्यग् परमार्थ को जानते नहीं है। इसलिए बहोत भी एक समान बोलते होने पर भी बहोत मुग्ध लोगो की बुद्धि की अंधता को उत्पन्न करते होने से वे लोकप्रसिद्ध बहुश्रुत लोगो के वचन तत्त्वज्ञानीओ को आदेय बनते नहीं है। शेष पूर्ववत् जानना । ।।८१॥ तदनु च तस्याः स पतिर्यदुपदिष्टवान् तदेव दर्शयन्नाह -- इस दृष्टांत को बताने के बाद अपनी पत्नी को उस पति ने जो उपदेश दिया था, वह बताते हुए कहते है कि(मू. श्लो.) पिब खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्रि तन्न ते ।
न हि भीरुगतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।।८२।। श्लोकार्थ : हे सुनयना ! खाओ, पीओ और मौज करो। हे सुन्दरी ! बीता हुआ यौवन वापस मिलनेवाला नहीं है। हे भोली ! जो गया वह वापस नहीं आता है। यह देह तो केवल पांचभूतो का समुदाय है। ॥८२॥
व्याख्या-हे चारुलोचने-शोभनाक्षि पिब-पेयापेयव्यवस्थालोपेन मदिरादेः पानं कुरु । न केवलं पिब खाद च-भक्ष्याभक्ष्यनिरपेक्षतया मांसादिकं भक्षय च । पिबखादक्रिययोरुपलक्षणत्वाद्गम्यागम्यविभागत्यागेन भोगानामुपभोगेन स्वयौवनं सफलीकुर्वित्यपि वचोऽत्र ज्ञातव्यम् । यत्-यौ(व)नाद्यतीतम्-अतिक्रान्तं हे वरगात्रि-हे प्रधानाङ्गि तद्भूयस्तेतव न भविष्यतीत्यध्याहार्यम् । चारुलोचने वरगात्रीति संबोधनद्वयस्य समानार्थस्याप्यादरानुरागातिरेकान्न पौनरुक्त्यदोषः । यदुक्तम्-“अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्संभ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् ।।१ ।।" [ ] अथ स्वेच्छाविरचिते पाने खादने भोगसेवने च सुप्रापा परलोके कष्टपरम्परा, सुलभं च सति सुकृतसञ्चये भवान्तरे भोगसुखयौवनादिकमिति पराशङ्कां पराकर्तुं प्राह । नहि-नैव हे भीरु ! परोक्तमात्रेण नरकादिप्राप्यदुःखभयाकुले ! गतम्-इह भवादतिक्रान्तं सुखयौवनादि निवर्तते-परलोके पुनरप्युपढौकते । परलोकसुखलिप्सया तपश्चरणादिकष्टक्रियाभिरिहत्यसुखोपेक्षणं व्यर्थमित्यर्थः । अथ शुभाशुभकर्मपारतन्त्र्येण जीवेनामुं कायमधुनाधिष्ठाय स्थितेनावश्यं परलोकेऽपि स्वकर्महेतुकं सुखदुःखादिवेदितव्यमेवेत्याशंक्य प्राह । समुदयमात्रं-समुदयो भूतचतुष्टयसंयोगस्तन्मात्रम् । मात्रशब्दोऽवधारणे । इदं-प्रत्यक्षं कलेवरं-शरीरं एवास्तीत्यध्याहारः, न पुनर्भूतचतुष्टयसंयोगमात्रादपरो भवान्तरयायी शुभाशुभकर्मविपाकभोक्ता काये
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