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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ८५-८६, लोकायतमत
(मू. श्लो.) तस्माद्दृष्टपरित्यागाद्यददृष्टे प्रवर्तनम् । लोकस्य तद्विमूढत्वं चार्वाकाः प्रतिपेदिरे ।। ८५ ।।
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श्लोकार्थ : इसलिए प्रत्यक्ष से अनुभूत = नजर से दिखते सुखो को छोडकर, नहि दिखते हुए सुख लिए प्रवर्तित होना, वह मूढता है, ऐसा चार्वाको का कहना है | ॥८५॥
तस्मात्कारणाद्
व्याख्या-यस्माद्भूतेभ्यश्चैतन्योत्पत्तिः दृष्टपरित्यागात्-दृष्टं-प्रत्यक्षानुभूतमेहिकं लौकिकं यद्विषयजं सुखं तस्य परित्यागाददृष्टे - परलोकसुखादौ तपश्चरणादिकष्टक्रियासाध्ये यत्प्रवर्तनं प्रवृत्तिः तल्लोकस्य विमूढत्वं - अज्ञानमेवेति चार्वाकाः प्रतिपेदिरेप्रतिपन्नाः । यो हि लोको विप्रतारकवचनोपन्यासत्रासितसंज्ञानो हस्तगतमिहत्यं सुखं विहाय स्वर्गापवर्गसुखप्रेप्सया तपोजपध्यानहोमादौ यद्यतते तत्र तस्याज्ञानतैव कारणमिति तन्मतोपदेशः ।। ८५ ।।
३८५/२००८
व्याख्या का भावानुवाद :
जिस तरह से पृथ्वी आदि भूतो से चैतन्य की उत्पत्ति होती है, उस कारण से प्रत्यक्ष से अनुभव में आते यह लोकसंबंधी लौकिक विषयजन्य सुख का त्याग करके, कठीन तप और चारित्र की कष्टकारि क्रिया से साध्य परलोकसुखादि के लिये प्रवृति करना वह लोक की मूढता = अज्ञानता है । इस अनुसार से चार्वाक मानते है ।
धूर्तो के द्वारा फैलाये गये मिथ्यावचनो के कारण जिन का सम्यग्ज्ञान नष्ट हो गया है, ऐसे लोग हाथ में रहे हुए आलोकसंबंधी सुख को छोडकर स्वर्ग-मोक्ष सुख की लालसा से तप, जप, ध्यान, होम-हवनादि क्रियाओ में प्रयत्न करते है । उसमें उन लोगो की अज्ञानता ही कारण है । इस अनुसार से चार्वाकमत का उपदेश है । ।।८५।।
अथ ये शान्तरसपूरितस्वान्ता निरुपमं शमसुखं वर्णयन्ति तानुद्दिश्य यच्चार्वाका बुव
तदाह
अब जो शान्तरस से पूरित= प्लावित हृदयवाले होकर तप, जप, ध्यानादि से निरुपम शमसुख की प्राप्ति होती है - ऐसा बताते है । उनको ध्यान में रखकर चार्वाक कहते है कि....
(मू. श्लो.) साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या प्रीतिर्जायते जने ।
निरर्था सा मते तेषां धर्मः कामात्परो न हि ।। ८६ ।।
श्लोकार्थ : स्वर्ग, मोक्ष इत्यादि साध्य के लिए की प्रवृत्ति के द्वारा और दुःख, नरक इत्यादि असाध्य के लिए की निवृत्ति के द्वारा लोगो को जो आनंद उत्पन्न होता है, वह निरर्थक है। क्योंकि उनके मत में भोग सुख से दूसरा कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है | ||८६ ॥
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