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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७५, मीमांसक दर्शन
तात्पर्यार्थ यह है कि प्रत्यक्षादि छः प्रमाणो से जाना हुआ पदार्थ जिसके बिना संगत होता नहीं है, उस अविनाभावी परोक्षपदार्थ की कल्पना अर्थापत्ति कही जाती है। (अब प्रत्यक्षादि छः प्रमाणपूर्विका अर्थापत्ति के उदाहरण देते है।)
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(१) प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति: जैसे कि, अग्नि का स्पार्शन प्रत्यक्ष से उष्णस्पर्श जानकर (अग्नि में रही हुई) दाहकशक्ति का योग अर्थापत्ति से कल्पित किया जाता है। शक्ति प्रत्यक्ष से परिच्छेद्य नहीं है। अनुमान से भी परिच्छेद्य नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष से शक्ति के साथ जुडा हुआ कोई भी अर्थ प्रतीत होता नहीं है। शक्ति के साथ जुडा हुआ कोई भी अर्थ जब लिंग बनके प्रत्यक्ष का विषय बने, तब ही अनुमान से लिंगि शक्ति का अनुमान किया जा सकता है । अन्यथा नहि । (अर्थात् शक्ति के साथ जुडा हुआ ऐसा कोई पदार्थ नहीं है कि, जिसको देखकर अनुमान होगा।) इसलिए शक्ति अनुमानगम्य भी नहीं है। इसलिए ही अग्नि में रहा हुआ दाहकशक्ति का योग अर्थापत्ति से मालूम होता है ।
(२) अनुमानपूर्विका अर्थापत्ति: देवदत्त का एक देश से दूसरे देश में पहुंचना गतिपूर्वक होता है, ऐसा देखकर सूर्य की देशान्तर प्राप्ति भी गतिपूर्वक होती है - ऐसा अनुमान किया जाता है। अनुमान के अनंतर सूर्य में गमनशक्तिका योग अर्थापत्ति से मालूम होता है ।
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(३) उपमानपूर्विका अर्थापत्ति : जैसे "गवय के जैसी गाय है ।" इस उपमानवाक्य के अर्थ से गाय में भार वहन करना, दूध देना आदि की शक्ति का योग प्रतीत होता है । अर्थात् "गवय जैसी गाय है" - इस उपमानवाक्य के अर्थ से गाय में तादृशशक्ति का योग की कल्पना की जाती है। यदि तादृशशक्ति का योग न हो, तो उसमें गोत्व का योग ही नहि रहेगा। अर्थात् वह गाय ही नहीं रहेगी ।
(४) शब्दपूर्विका अर्थापत्ति : (जिसका दूसरा नाम श्रुतार्थापत्ति है ।) जैसे कि, शब्द से अर्थ की प्रतीति होने से शब्द का अर्थ के साथ जो संबंध है, वह अर्थापत्ति से सिद्ध होता है। अर्थात् शब्द वाचक है और अर्थ वाच्य है - ऐसे प्रकार के वाच्य - वाचकरुप संबंध की सिद्धि होती है।
(५) अर्थापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति : पहले कहे अनुसार शब्द का अर्थ के साथ संबंध सिद्ध होने से अर्थापत्ति से शब्द का नित्यत्व सिद्ध होता है। क्योंकि, यदि वचन को पौरुषेय मानोंगे तो (अर्थात् पुरुष से उत्पन्न होता होने से अनित्य मानोंगे तो) शब्द का (अर्थ के साथ का) नित्यसंबंध का अयोग हो जायेगा । अर्थात् शब्द और अर्थ के बीच जो नित्य वाचक- वाच्यभावरुप संबंध है, वह नहि बन सकेगा ।
(६) अभावपूर्विका अर्थापत्ति: जैसे कि, जीवित देवदत्त घर में देखने मिलता नहीं है। अर्थात् जीवित देवदत्त का गृह में अभाव होने से अर्थापत्ति से देवदत्त का बहिर्भाव सिद्ध होता है ।
यहाँ छ: अर्थापत्ति में से चार अर्थापत्ति से शक्ति की सिद्धि होती है। पांचवी अर्थापत्ति से नित्यता और छुट्टी अर्थापत्ति से घर से बाहर देवदत्त की सत्ता सिद्ध होती है । इस प्रकार से छ: प्रकार की
पत्ति है।
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