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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७५, मीमांसक दर्शन
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संबन्धासिद्धेः । G-98अनुमानपूर्विकार्थापत्तिः यथादित्यस्य देशान्तरप्राप्त्या देवदत्तस्येव गत्यनुमाने ततोऽनुमानाद्गमनशक्तियोगोऽर्थापत्त्यावसीयते । G-99उपमानपूर्विकार्थापत्तिः यथा “गवयवद्गौः” इत्युक्तेराद्वाहदोहादिशक्तियोगस्तस्य प्रतीयते, अन्यथा गोत्वस्यैवायोगात । शब्दपूर्विकार्थापत्तिः श्रुतार्थापत्तिरितीतरनामिका यथा शब्दादर्थप्रतीतौ शब्दस्यार्थेन संबन्धसिद्धिः । G-100अपत्तिपूर्विकार्थापत्तिः । यथोक्तप्रकारेण शब्दस्यार्थेन संबन्धसिद्धावन्नित्यत्वसिद्धिः पौरुषेयत्वे शब्दस्य संबन्धायोगात् । अभावपूर्विकार्थापत्तिः यथा जीवतो देवदत्तस्य गृहेऽदर्शनादर्थाबहिर्भावः । अत्र च चतसृभिरर्थापत्तिभिः शक्तिः साध्यते, पञ्चम्या नित्यता, षष्ठ्या गृहाप्टहि तो देवदत्त एव साध्यत इत्येवं षट्प्रकारार्थापत्तिः । अन्ये तु H-श्रुतार्थापत्तिमन्यथोदाहरन्ति, पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्त इति वाक्यश्रवणाद्रात्रिभोजनवाक्यप्रतीतिः, श्रुतार्थापत्तिः । गवयोपमितस्य गोस्तज्ज्ञानग्राह्यताशक्तिरुपमानपूर्विकार्थापत्तिरिति । इयं च षट्प्रकाराप्यर्थापत्तिर्नाध्यक्ष अतीन्द्रियशक्त्याद्यर्थविषयत्वात् । अत एव नानुमानमपि, प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्तस्य, ततः प्रमाणान्तरमेवार्थापत्तिः सिद्धा ।।७५ ।। व्याख्या का भावानुवाद :
प्रत्यक्षादि छः प्रमाणो के द्वारा सिद्ध हुआ अर्थ अन्य प्रकार से संभवित न होने से (उसकी संगति के लिए) पुनः किसी भी अदृष्टार्थ की कल्पना जिस ज्ञान के बल-सामर्थ्य से की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है।
उपरांत, किसी स्थान पे "दृष्टाद्यनुपपत्त्या" ऐसा पाठ भी देखने को मिलता है। उस पाठ के अनुसार इस प्रकार अर्थ करना-प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण से सिद्ध अर्थ या शाब्दप्रमाण से सुने हुए अर्थ, जब दूसरी तरह से संगत होता न हो, तब (उसकी संगति के लिए) दूसरे किसी भी अर्थ की कल्पना जिस ज्ञान के बल - सामर्थ्य से की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है। इस अनुसार से अदृष्टपदार्थ की कल्पनारुप ज्ञान ही अर्थापत्ति कहा जाता है।
शाबरभाष्य में अर्थापत्ति का लक्षण इस अनुसार से है - "अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पना" प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण से दृष्टपदार्थ या शाब्दप्रमाण से सुना हुआ पदार्थ दूसरी तरह से संगत होता नहीं है, तब जो अदृष्टार्थ की कल्पना की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है।
यहाँ सूत्र में प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण से प्रसिद्ध दृष्टपदार्थ तथा शाब्दप्रमाण से प्रसिद्ध श्रुतपदार्थ की परस्परविलक्षणता बताने के लिए दोनो को पृथक् ग्रहण किया है। शेष उपर की हुई व्याख्या अनुसार है।
(G-98-99-100) - तु० पा० प्र० प० । (H-1-2) - तु० पा० प्र० प० ।
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