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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ७६, मीमांसक दर्शन
तु प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिरित्यस्यैवोक्तस्य बलेन द्विधा तद्वर्णितमास्ते । तत्र सशब्दः पुल्लिङ्गः प्रमाणाभावस्य विशेषणं कार्य इति । तत्त्वं तु बहुश्रुता जानते । व्याख्या का भावानुवाद :
वस्तु सदसदंशात्मक = भावाभावात्मक होती है। अर्थात् वस्तु में सदंश की तरह असदंश भी रहता है। उसमें प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण वस्तु का सदंश ग्रहण करते है। परंतु असदंश को ग्रहण करते नहीं है । प्रत्यक्षादिप्रमाणपंचक के अभाव में प्रवृत्त अभावप्रमाण वस्तु के असदंश को ग्रहण करता है। परन्तु सदंश को ग्रहण करता नहीं है। कहा भी है कि... "प्रमाणो के अभाव को अभावप्रमाण कहते है। वह "नास्तिनहीं है" इस अर्थ की सिद्धि करता है। इस अभाव को जानने के लिए किसी भी प्रकार के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं है। अर्थात् प्रमाणो के अभावस्वरुप अभाव भी "नास्ति" इस अनुसार असन्निकृष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए प्रमाण है।"
अन्य आचार्य अभावप्रमाण को तीन रुप से मानते है - (१) (नजदीक में कहे हुए) प्रमाणपंचक का अभाव, (२) जिसका निषेध करना है, उस पदार्थ के मात्र आधारभूत पदार्थ का ज्ञान (अर्थात् निषेध्यमानपदार्थ से भिन्न आधारभूत पदार्थ का ज्ञान।) और (३) आत्मा का विषयज्ञानरुप से अनभिनिवृत्त = परिणत न होने का स्वभाव।
इसलिए प्रस्तुतश्लोक का यह अर्थ होगा - "प्रत्यक्षादि प्रमाणपंचक जो भूतलादि आधार में घटादि आधेय को ग्रहण करने के लिए प्रवर्तित नहीं होता है; वह आधेयवर्जित आधार के ग्रहण में अभाव की प्रमाणता - प्रामाण्य है।" इस अर्थ से अभाव प्रमाण का दूसरा रुप कहा गया।
("प्रमाणपंचकं यत्र" यह पद यहाँ भी जोडना । इसलिए अर्थ इस प्रकार होगा -) प्रमाण पंचक की जिस घटादि वस्तु के असदंश में ग्राहकतया प्रवृत्ति नहीं है, उस घटादि वस्तु के असदंश में अभाव की प्रमाणता है । इसके द्वारा प्रमाणपंचकाभावरुप प्रथमरुप कहा गया।
उस अनुसार से जहाँ प्रमाणपंचक घटादि वस्तु की सत्ता के अवबोध के लिए प्रवर्तित होता नहीं है। अर्थात् घटादि वस्तु के असदंश में व्यापार करता नहीं है, वहाँ घटादि वस्तु की सत्ता के अनवबोध में अभाव की प्रमाणता है। इसके द्वारा अभावप्रमाण का तीसरा रुप कहा गया। इस अनुसार से यहाँ अभावप्रमाण के तीन रुप बताये गये। कहा भी है कि... "प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण की अनुत्पत्ति प्रमाणाभाव-अभावप्रमाण कहा जाता है । अथवा आत्मा की विषयग्रहणरुप से परिणति न होना या घटादि निषेध्यपदार्थो से भिन्न शुद्धभूतलादि वस्तुओ का परिज्ञान होना, (वह) भी अभावप्रमाण है।
यहाँ श्लोक में "सा" शब्द अनुत्पत्ति का विशेषण है। सम्मतितर्क की टीका में अभावप्रमाण के इस अनुसार से तीन प्रकार बताये है, उस अनुसार से ही यहाँ बताये है।
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