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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ८१, लोकायतमत
अप्रत्यक्षमप्यस्तीति चेत् ? शशश्रृङ्गवन्ध्यास्तनन्धयादीनामपि भावोऽस्तु । न हि पञ्चविधेन प्रत्यक्षेण मृदुकठोरादिवस्तूनि तिक्तकटुकषायादिद्रव्याणि सुरभिदुरभिभावान् भूभूधरभुवनभूरुहस्तम्भाम्भोरुहादिनरपशुश्वापदादिस्थावरजङ्गमपदार्थसार्थान् विविधवेणुवीणादिध्वनींश्च विमुच्य जातुचिदन्यदप्यनुभूयते । यावता च भूतोद्भूतचैतन्यव्यतिरिक्तचैतन्यहेतुतया परिकल्प्यमानः परलोकयायी जीवः प्रत्यक्षेण नानुभूयते, तावता जीवस्य सुखदुःखनिबन्धनौ धर्माधर्मी तत्प्रकृष्टफलभोगभूमी स्वर्गनरको पुण्यपापक्षयोत्थमोक्षसुखं चोपवर्ण्यमानानि आकाशे विचित्रचित्रविरचनमिव कस्य नाम न हास्यावहानि ? ततो-येऽत्रास्पृष्टमनास्वादितमनाघ्रातमदृष्टमश्रुतमपि जीवादिकमाद्रियमाणाः स्वर्गापवर्गादिसुखलिप्साविप्रलब्धबुद्धयःशिरस्तुण्डमुण्डनदुश्चरतरतपश्चरणाचरणसुदुःसहतपनातपसहनादिक्लेशैर्यत्सौवं जन्म क्षपयन्ति, तत्तेषां महामोहोद्रेकविलसितम् । तदुक्तम् - 11-12"तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चना । अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ।।१ ।। H-13यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्तावद्वैषयिक सुखम् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।२।।" इत्यादि ततः सुस्थितमिन्द्रियगोचर एव तात्त्विक इति ।। व्याख्या का भावानुवाद :
श्लोक में "तथा" उपदर्शनार्थक है। प्रत्यक्ष रुप से दीखाई देता मनुष्यलोक, केवल इतना ही है कि जितना स्पर्शन रसन घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये पांच इन्द्रियो का विषय बनता है। अर्थात् पांच इन्द्रियो की विषय बनी हुई वस्तु ही विद्यमान है। उससे दूसरा कुछ भी विद्यमान नहीं है। यहाँ "लोक" पद से लोक में रहा हुआ पदार्थो का समूह जानना । इसलिए पांच इन्द्रियो से ग्राह्य जो पदार्थ बनते है वही वास्तविक है, उससे दूसरे अतीन्द्रिय आत्मा, पुण्य, पाप, पुण्य-पाप का फल स्वर्ग-नरकादि पदार्थ जो लोग कहते है, वह विद्यमान नहीं है। क्योंकि उनका कभी भी पांचो इन्द्रियो से प्रत्यक्ष होता नहीं है । "अप्रत्यक्ष ऐसे जीवादिपदार्थ भी होते ही है" - ऐसा कहोंगे तो खरगोस का सिंग, वन्ध्या का पुत्र, आकाशकुसुम आदि, अप्रत्यक्ष पदार्थ भी सत् बन जायेंगे। पांच प्रकार के प्रत्यक्ष से ग्राह्य मृदु - कठोरादि वस्तुए, तीखेकडुए आदि द्रव्य, सुरभि-दुरभि भाव, पृथ्वी, पर्वत, जगत, वृक्ष, स्तंभ, कमल आदि, मनुष्य, पशु, श्वापद आदि स्थावर तथा जंगम-चलने फिरनेवाले पदार्थो का समूह, विविध वीणा, बांसुरी आदि सुनने लायक शब्दो को छोडकर जगत में दूसरा कुछ भी अनुभव में आता नहीं है। उस पदार्थो का समूह ही जगत है। उससे अतिरिक्त किसी भी अतीन्द्रियपदार्थ की सत्ता नहीं है। जब भूतो से उत्पन्न हुए चैतन्य से अतिरिक्त चैतन्यहेतुतया परिकल्पित परलोकगामी अतीन्द्रिय आत्मा प्रत्यक्ष से अनुभव में नहीं आता है तब जीव के सुख-दुःख में कारणभूत धर्म और अधर्म तथा उस धर्म और अधर्म के फल को भुगतने के लिए उत्कृष्ट
(H-12-13) - तु० पा० प्र० प० ।
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