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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७९, लोकायतमत
रहता है। इसलिए कुछ आचार्य नैयायिक और वैशेषिको का मत परस्पर एक ही मानते है। इन आचार्यो के मत में आस्तिकदर्शन पांच ही है, छ: नहीं है | ॥७८॥
अथ दर्शनानां सङ्ख्या षडिति या जगत्प्रसिद्धा सा कथमुपपादनीयेत्याशंक्याह -
अब जगत में दर्शनो की संख्या छः प्रसिद्ध है। तो वह किस तरह से संगत होगा ? ऐसी शंका के समाधान में कहते है कि.....
(मू. श्लो.) षड्दर्शनसङ्ख्या तु पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ।। ७९ ।
श्लोकार्थ: जो लोग ( नैयायिक और वैशेषिक दर्शन को एक मानते है ।) उनके मत में लोकायत मत को रखने से दर्शनो की छ: संख्या पूर्ण होती है। इसलिए अब लोकायत - चार्वाक मत का स्वरुप कहा जाता है | ॥७९॥
व्याख्या-ये
३७५ / ९९८
नैयायिकवैशेषिकयोर्मतमेकमाचक्षते तन्मते षड्दर्शनसङ्ख्या तु षण्णां दर्शनानां सङ्ख्या पुनर्लोकायता - नास्तिकास्तेषां यन्मतं तस्य क्षेपे-मीलन एव किलेत्याप्तवादे । पूर्यते - पूर्णीभवेत् । तेन कारणेन तन्मतं- चार्वाकमतं कथ्यते - स्वरूपतः प्ररूप्यते । अत्राद्यपादे सप्ताक्षरं छन्दोऽन्तरमिति न छन्दः शास्त्रविरोधः शङ्कनीयः ।।७९।।
व्याख्या का भावानुवाद :
नैयायिक और वैशेषिकमत को एक मानते है, उनके मत में लोकायतो = नास्तिको का मत रखने से दर्शनो की छ: संख्या पूर्ण होती है । उस कारण से अब चार्वाक के मत का स्वरुप कहा जाता है। यहाँ श्लोक में प्रथमपाद में सात अक्षर है। इसलिए उसे कोई आर्षछंद मानना चाहिए। उसको अनुष्टुप छन्द मानकर छंदशास्त्र से विरोध की शंका न करे | ॥७९॥
।। अथ लोकायतमतम् ।।
प्रथमं नास्तिकस्वरूपमुच्यते । कापालिका भस्मोद्धूलनपरा योगिनो ब्राह्मणाद्यन्त्यजान्ताश्च केचन नास्तिका भवन्ति । ते च जीवपुण्यपापादिकं न मन्यन्ते । चतुर्भूतात्मकं जगदाचक्षते । केचित्तु चार्वाकैकदेशीया आकाशं पञ्चमं भूतमभिमन्यमानाः पञ्चभूतात्मकं जगदिति निगदन्ति । तन्मते भूतेभ्यो - "मदशक्तिवचैतन्यमुत्पद्यते । ॥ जलबुद्बुदवज्जीवाः । चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुष इति । ते च मद्यमांसे भुञ्जते मात्राद्यगम्यगमनमपि कुर्वते । वर्षे
H-11
(H-10-11 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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