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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७३, मीमांसक दर्शन
अयमत्र भावः यद्विषयं विज्ञानं तेनैवार्थेन संप्रयोगे इन्द्रियाणां प्रत्यक्षं, प्रत्यक्षाभासं त्वन्यसंप्रयोगजं यथा मरुमरीचिकादिसंप्रयोगजं जलादिज्ञानमिति I अथवा सत्संप्रयोगजत्वं विद्यमानोपलम्भनत्वमुच्यते । तत्र सति - विद्यमाने सम्यक्प्रयोगोअर्थेष्विन्द्रियाणां व्यापारो योग्यता वा, न तु नैयायिकाभ्युपगत एवं संयोगादिः । तस्मिन्सति शेषं प्राग्वत् । इतिशब्दः प्रत्यक्षलक्षणसमाप्तिसूचकः ।। अथानुमानं लक्षयति पुनः शब्दस्य व्यस्तसंबन्धात् । अनुमानं पुनर्लेङ्गिकम् लिङ्गाज्जातं लैङ्गिकम् । लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानमनुमानमित्यर्थः । तत्रेदमनुमानलक्षणस्य सूचामात्रमुक्तम् । संपूर्णं त्वित्थं तल्लक्षणं “ “ ज्ञातसंबन्धस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमानम्” [शाबर. भा० १|१ | ५ ] इति शाबरमनुमानलक्षणम् । व्याख्या अवगतसाध्यसाधनाविनाभावसंबन्धस्य पुंस एकदेशस्य साधनस्य दर्शनादसन्निकृष्टे परोक्षेऽर्थे बुद्धिर्ज्ञानमनुमानमिति ।। ७३ ।।
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व्याख्या का भावानुवाद :
श्लोक में निर्दिष्ट “तत्र” निर्धारणार्थक है । श्लोक में छन्दरचना के अनुरोध से लक्षणगत शब्दो की व्यस्तता है। परंतु श्लोक में सूचित किये गये प्रत्यक्ष के लक्षण की अक्षर घटना इस अनुसार से है - विद्यमान वस्तुओ के साथ संप्रयोग = संबंध होने से आत्मा को इन्द्रियो के द्वारा बुद्धि = ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है। वस्तुत: क्रम इस अनुसार है - विद्यमान वस्तुओ का संबंध होने से आत्मा को इन्द्रियो के द्वारा जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। यद्यपि "सतः " ऐसा एकवचन का प्रयोग करने से भी प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि हो जाती । अर्थात् वर्तमान पदार्थो से इन्द्रियो के सन्निकर्ष का सूचन हो सकता था, तो भी "सताम् " ऐसा बहुवचन का प्रयोग किया है, वह भी सूचित करता है कि कभी कभी कहींकहीं ज्यादा पदार्थो के साथ भी इन्द्रियो का संबंध होता है । जैमिनिसूत्र यह है
"सत्संप्रयोगे सति पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम् " व्याख्याः विद्यमान वस्तु से इन्द्रियो का संबंध होने से पुरुष को जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि.. जो पदार्थविषयक ज्ञान होता है उस पदार्थ के साथ इन्द्रियो का संबंध होने से प्रत्यक्ष होता है । अन्यपदार्थ के साथ संबंध होने से अन्यपदार्थ का ज्ञान होना वह प्रत्यक्षाभास है । जैसे कि, मरुस्थल की रेत और सूर्य के किरण आदि के साथ संबंध होने से उत्पन्न होता भ्रान्त जलज्ञान प्रत्यक्षाभास है। अथवा “सत्संप्रयोगज” का अर्थ है, विद्यमान पदार्थो की उपलब्धि करनेवाला, विद्यमान पदार्थ में इन्द्रियो का सम्यक्प्रयोग या इन्द्रियो की योग्यता को सत्प्रयोग कहा जाता है, नहि कि नैयायिको के द्वारा माने गये संयोगादि सन्निकर्ष ही । प्रत्यक्ष के लक्षण में निर्दिष्ट "इति" पद समाप्ति का सूचक है।
अब अनुमान का लक्षण करते है - "पुनः " शब्द का संबंध श्लोक में जिसके साथ है, उससे भिन्न पद के साथ है । श्लोक में "अनुमानं लैङ्गिकं पुनः " - यह पद है। उसके स्थान पे “ अनुमानं
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