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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६९, मीमांसक दर्शन
द्रष्टुः-ज्ञातुरभावतो-असद्भावाद्धेतो; नित्येभ्यो-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावेभ्योऽवधारणस्येष्टविषयत्वाद्वेदवाक्येभ्य एव यथार्थत्वविनिश्चयः-अर्थानामनतिक्रमेण यथार्थं तस्य भावो यथार्थत्वं यथावस्थितपदार्थत्वं तस्य विशेषेण निश्चयो भवति । नित्यत्वेनापौरुषेयेभ्यो वेदवचनेभ्य एव यथावदतीन्द्रियाद्यर्थज्ञानं भवति, न पुनः सर्वज्ञप्रणीतागमादिभ्यः, सर्वज्ञादीनामेवाभावादिति भावः । यथाहुस्ते-“अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद्रष्टा न विद्यते । वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स पश्यति ।।१।।” नन्वपौरुषेयानां वेदानां कथमर्थपरिज्ञानमिति चेत्, अव्यवच्छिन्नानादिसंप्रदायेनेति ।।६९ ।। व्याख्या का भावानुवाद :
जगत में सर्वज्ञदेव नहीं है और इसलिए प्रमाणभूत आगम भी नहीं है। तब अतीन्द्रियपदार्थो का परिज्ञान किससे होता है? इस शंका के समाधान मे बताते है कि "आत्मा, धर्म, अधर्म, काल, स्वर्ग, नरक, परमाणु इत्यादि पदार्थ इन्द्रियो के विषय नहीं बन सकते है। ये अतीन्द्रिय पदार्थो का साक्षात् अर्थात् स्पष्ट प्रत्यक्षज्ञान से साक्षात्कार करनेवाले ज्ञाता का अभाव होने से अप्रच्युत - अनुत्पन्न और स्थिर एक स्वभाववाले नित्य वेदवाक्यो से ही यथार्थरुप से विनिश्चय होता है। (श्लोक में अवधारण बोधक "एव" कार न होने पर भी अवधारण इष्ट होने से व्याख्या में "एव" कार का उपयोग किया है। जिससे पदार्थो को वास्तविक स्वरुप का अतिक्रमण होता न हो वह यथार्थ कहा जाता है । यथार्थ का भाव वह यथार्थत्व = यथार्थता । वह यथार्थत्व का अर्थात् यथावस्थितपदार्थत्व का विशेष से निश्चय वेदवाक्यो से ही होता है, ऐसा मीमांसको को इष्ट है। उनका आशय यह है कि अपौरुषेय ऐसे नित्यवेदवचनो से ही यथावत् अतीन्द्रियपदार्थो का परिज्ञान होता है। परंतु अतीन्द्रिय पदार्थो का परिज्ञान सर्वज्ञप्रणीत आगमादि से होता नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ
और सर्वज्ञप्रणीत आगम का ही अभाव है। कहा भी है कि... "अतीन्द्रिय पदार्थो का साक्षात् द्रष्टा विद्यमान नहीं है । इसलिए नित्यवेदवोक्यो से जो अतीन्द्रियपदार्थो को देखता है और जानता है, वही सच्चा देखनेवाला है - अतीन्द्रियदर्शी है।"
शंका : वेद अपौरुषेय है। उसके कोई आद्यप्रणेता नहीं है। तो उस अपौरुषेय वेदो के अर्थ का परिज्ञान किस तरह से होगा?
समाधान : वेद अपौरुषेय तथा उसके कोई आद्यप्रणेता न होने पर भी अर्थ तथा पाठ की परंपरा अनादिकाल से अविच्छिन्नरुप से चली आ रही है। उसमें कोई विच्छेद पडा नहीं है। उससे ही वेद के वाक्यो के अर्थ का यथार्थनिर्णय हो जाता है। ॥६९।।
अथैतदेव दृढयन्नाह - यही बात ज्यादा स्पष्ट करते हुए कहते है -
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