________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन
स्थविरस्य परेण कालप्रदेशेन योगात्परत्वमुत्पद्यते, स्थविरं चावधिकृत्वाल्प-कालीनस्य यूनोऽपरेण कालप्रदेशेन योगादपरत्वमुत्पद्यते । ।११-१२ ।।
३२६ / ९४९
व्याख्या का भावानुवाद :
लघु आदि परिमाण के व्यवहार में कारणभूत गुण परिमाण है । वह परिमाण चार प्रकार के है । (१) महत् – बडा, (२) अणु - छोटा, (३) दीर्घ - लम्बा, (४) ह्रस्व - छोटा (नाटा) ।
उसमें महत्परिमाण दो प्रकार का है । (१) नित्य और (२) अनित्य । आकाश, काल, दिशा और आत्माओं में (सर्वोत्कृष्ट) नित्य परममहत् परिमाण है । द्वाद त्र्यणुकादि द्रव्यो में अनित्य
महत्परिमाण है ।
अणुपरिमाण भी नित्य और अनित्य ऐसे दो प्रकार का है। परमाणु और मन में नित्य अणुपरिमाण होता है। उसकी संज्ञा “पारिमांडल्य" है । अनित्य अणुपरिमाण मात्र द्व्यणुक में ही होता है ।
बेर, आमलक (आंवला) और बिल्वफल आदि में तथा बिल्वफल, आमलक और बेर आदि में क्रमशः यथोत्तर महत्त्व और अणुत्व का व्यवहारविभाग जानना। क्योंकि आमलकादि में उभय का व्यवहार होता है । (कहने का मतलब यह है कि बेर, आमलक और बिल्वफल आदि में मध्यममहत्परिमाण होने पर भी एकदूसरे की अपेक्षा से उनमें महत्व और अणुत्व का व्यवहार होता है। बेर की अपेक्षा से आमलक में महत्त्व है। तो बिल्वफल की अपेक्षा से आमलक में अणुत्व है। इसलिए मध्यम महत्परिमाणवाली उस उस वस्तुओ में छोटे-बडे का जो व्यवहार होता है, वह गौणरुप से है । मुख्यरुप से नहि है और वह भी अनियत है ।)
इस अनुसार से ही मध्यममहत्परिमाणवाले गन्ने में समित्यज्ञ में उपयोगी (अग्निकुंड में जलाया जाता है वह) लकडी की अपेक्षा से दीर्घत्व (लम्बेपन) का और बांस की अपेक्षा से ह्रस्वत्व का व्यवहार होता है । यह विभाग भी गौणरुप समजना और अनियत जानना ।
शंका : त्र्यणुक आदि में रहनेवाले महत्त्व और दीर्घत्व में तथा द्व्यणुक में रहनेवाले अणुत्व और स्वत्व में परस्पर क्या भेद है ?
समाधान : “महत् (= बडो) में दीर्घ (लम्बे) को ले जाना ।" तथा "लम्बो में बडो को ले जाना" ये दो प्रकार के भेद व्यवहार में प्रतीत होते है और उससे उन दोनो में परस्परभेद है। (यहाँ याद रखना किदीर्घत्व केवल लम्बेपन की अपेक्षा से होता है । जब महत्त्व में लंबाई और चौडाई दोनो की विवक्षा होती है ।)
है
अणुत्व और ह्रस्वत्व में परस्पर भेद क्या है ? वह उसको देखनेवाले योगीओ का ही प्रत्यक्ष का विषय । उसका विशेषकथन शब्दो में कहने योग्य नहीं है । द्व्यणुक का प्रत्यक्ष योगीओ को ही होता है। इसलिए उसमें रहनेवाले अणुत्व और ह्रस्वत्व का प्रत्यक्ष भी योगीओ को ही होता है । इसलिए उसमें परस्पर क्या भेद है? वह हम कह सकते नहीं है । (९)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org