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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६६, वैशेषिक दर्शन
श्लोक का अर्थ इस अनुसार होगा - इह = वैशेषिकदर्शन में अयुतसिद्ध = अपृथक्सिद्ध = जो पदार्थो की भिन्न - भिन्न स्थिति नहीं है, जो तंतु पट की तरह अर्थात् जो तंतु और पट की तरह भिन्न आश्रयो में रहते नहीं है। अर्थात् तंतु और पट की तरह अभिन्न आश्रयो में रहते है, भिन्न-भिन्न आधारो में रहते नहीं है । वे आधार - आधेयभूत जो पदार्थ है, उन पदार्थो में "ये तंतुओ में पट है" इत्यादि प्रत्यय का जो संबंध असाधारण कारण होता है, उसे समवाय कहा जाता है
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इस समवाय से ही “तंतुओ में पट", "इस पटद्रव्य में गुण-कर्म" इस द्रव्य - गुण कर्म में सत्ता," "इस द्रव्य में द्रव्यत्व”, “इस गुण में गुणत्व", "इस कर्म में कर्मत्व" और "इस नित्यद्रव्यो में विशेष" इत्यादि विशेषप्रत्यय उत्पन्न होते है । इसलिए अवयव - अवयवीभूत द्रव्यो में, गुण और गुणी में, क्रिया और क्रियावान् में, सामान्य और सामान्यवान् में तथा विशेष और विशेषवान् पदार्थो में रहनेवाला नित्यसंबंध द्रव्यादि पांच पदार्थो से अर्थान्तर = पृथकपदार्थ है । वह समवाय, एक, विभु और नित्य जानना | ||६६ |
तदेवं षट्पदार्थस्वरूपं प्ररूपितम् । संप्रति प्रमाणस्य सामान्यतो लक्षणमाख्यायते । अर्थोपलब्धिहेतुः A प्रमाणमिति I अस्यायमर्थः-अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनका सामग्री तदेकदेशो वा बोधरूपोऽबोधरूपो वा ज्ञानप्रदीपादिः साधकतमत्वात्प्रमाणम् । एतत्कार्यभूता वा यथोक्तविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिः प्रमाणस्य सामान्यलक्षणं, तया स्वकारणस्य प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिद्यमानत्वात् 1 इन्द्रियजत्वलिङ्गजत्वादिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिः प्रमाणस्य विशेषलक्षणमिति ।
व्याख्या का भावानुवाद :
इस अनुसार से छ: पदार्थों का स्वरुप कहा गया । अब प्रमाण का सामान्यलक्षण कहते है । “अर्थोपलब्धि हेतुः प्रमाणम्" पदार्थो की उपलब्धि में जो कारण बनता है, उसे प्रमाण कहा जाता है। कहने का मतलब यह है कि, अव्यभिचारी आदि विशेषणो से विशिष्ट = युक्त अर्थोपलब्धि को उत्पन्न करनेवाली ज्ञानरुप या अज्ञान (अचेतन) रुप समग्रसामग्री या सामग्री का एक अंश साधकतम होने से प्रमाण है। इस सामग्री में बोधरूपज्ञान तथा अचेतनदीपक आदि सभी का अन्तर्भाव होता है । अथवा इस सामग्री की कार्यभूत यथोक्तविशेषण से विशिष्ट अर्थोपलब्धि ही प्रमाण का सामान्य लक्षण है। अर्थात् इस सामग्री से उत्पन्न होनेवाली यथोक्त विशेषण से विशिष्ट निर्दोष अर्थोपलब्धि ही प्रमाण का सामान्यलक्षण है। इस यथोक्तविशेषण से विशिष्ट अर्थोपलब्धि अपनी कारणभूतसामग्री को प्रमाणाभास से व्यावृत्त कराती है । तथा वह सामान्य अर्थोपलब्धि ही इन्द्रियजत्व तथा लिंगजत्व विशेषण से विशेषित होके प्रत्यक्ष और अनुमानरुप प्रमाण का विशेष लक्षण बनती है । अर्थात् यह सामान्य अर्थोपलब्धि जब इन्द्रियो से उत्पन्न होती है, तब उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है और यही अर्थोपलब्धि जब लिंग से उत्पन्न होती है, तब अनुमान कहा A. “ उपलब्धिहेतुष्टा प्रमाणं ।” न्याय भा० पृ. ९९ ।
B. “ अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् ।” - न्यायमं० प्रमाण ० पृ० १२ ।।
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