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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६७, म्वैशेषिक दर्शन
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इसलिए “अस्येदं” सूत्र में सभी लिंगो का समावेश होने से वह सूत्र अव्यापक - अपर्याप्त नहीं है। परंतु सर्वथापूर्ण है। इस विषय को विशेषजिज्ञासुओ द्वारा न्यायकंदली टीका से देखना चाहिए ।
शब्दादि= आगमादि प्रमाणो का अनुमान में ही अंतर्भाव होता होने से कंदलीकार के अभिप्राय से ये प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण कहे है। परंतु व्योमवती टीकाकार व्योमशिवाचार्य तो प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाणो को मानते है । इस तरह से वैशेषिक मत का संक्षिप्त कथन किया । ॥६७॥
अथात्राप्यनुक्तं किंचिदुच्यते । व्योमादिकं नित्यम् । प्रदीपादि कियत्कालावस्था । बुद्धिसुखादिकं च क्षणिकम् । चैतन्यादयो रूपादयश्च धर्माः आत्मादेर्घटादेश्च धर्मिणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसंबन्धेन संबद्धा:, स च समवायो नित्यः सर्वगत एकश्च । सर्वगत आत्मा । बुद्धिसुखदुःखेच्छाधर्माधर्मप्रयत्नभावनाख्यसंस्कारद्वेषाणां नवानामात्मविशेष - गुणानामुच्छेदो मोक्षः । परस्परविभक्तौ सामान्यविशेषो द्रव्यपर्यायौ च प्रमाणगोचरः । द्रव्यगुणादिषु षट्सु पदार्थेषु स्वरूपसत्त्वं निबन्धनं विद्यते द्रव्यगुणकर्म च सत्तासंबन्धो वर्त्तते सामान्यविशेषसमवायेषु च स नास्तीति ।
षट्पदार्थी कणादकृता तद्भाष्यं प्रशस्तकारकृतं तट्टीका कन्दली श्रीधराचार्यीया, किरणावली तूदयनसंदृब्धा, व्योममतिर्व्यामशिवाचार्यविरचिता, लीलावतीतर्कः श्रीवत्साचाय आत्रेयतन्त्रं चेत्यादयो वैशेषिकतर्काः ।। ६७ ।।
इति
श्रीतपोगणनभोगणदिनमणिश्रीदेवसुन्दरसूरिपदपद्मोपजीविश्रीगुणरत्नसूरिकृतायां
तर्करहस्यदीपिकायां षड्दर्शनसमुच्चयटीकायां वैशेषिकमतनिर्णयो नाम पञ्चमोऽधिकारः ।।
व्याख्या का भावानुवाद :
मूलग्रंथकार श्री ने श्लोक में नहि कहा हुआ भी टीकाकार श्री कुछ कहते है ।
आकाशादि नित्य है। प्रदीपादि कुछ काल रहनेवाले है। बुद्धि, सुख, दुःख आदि क्षणिक है। चैतन्य आदि धर्म आत्मा से तथा रुपादि धर्म घटादि से सर्वथा भिन्न होने पर भी उसमें समवायसंबंध से रहते है। समवाय नित्य एक तथा सर्वगत है। आत्मा सर्वव्यापी है। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, भावना नाम का संस्कार और द्वेष, ये नौ आत्मा के विशेषगुणो का उच्छेद होना वह मोक्ष है। (सामान्य और विशेष द्रव्य, गुण, कर्म परस्पर भिन्न है) वही द्रव्य, सामान्य और पर्याय-विशेष, परस्पर भिन्न रहकर भी प्रमाण के विषय बनते है। द्रव्य, गुण आदि छः पदार्थो में "यह वस्तु है" ऐसा व्यवहार करानेवाला स्वरुपसत्त्व होता है। सत्ता का संबंध मात्र द्रव्य, गुण और कर्म में ही है । सामान्य, विशेष और समवाय में नहीं है । (द्रव्यादि तीन सत्ता के समवाय से सत् बनते है । सामान्यादि तीन स्वरुप से सत् है ।)
कणादरचित षट्पदार्थी=वैशेषिकसूत्र, प्रशस्तकारकृत प्रशस्तपादभाष्य, श्रीधराचार्य विरचित
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