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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६४, वैशेषिक दर्शन
वेग संस्कार का ही भेद है। स्वतंत्रगुण नहीं है । इसलिए उनके मत में चौबीस ही गुण है। शौर्य, औदार्य, कारुण्य, दाक्षिण्य, उन्नति आदि गुणो का इस प्रयत्न, बुद्धि आदि गुणो में ही अन्तर्भाव हो जाता होने चौबीस से अधिक गुण नहीं है ।
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स्पर्श आदि सभी गुणो में गुणत्व का अभिसंबंध = समवाय है । वे स्पर्शादि सभी गुण द्रव्याश्रित है। निष्क्रिय तथा निर्गुण है।
स्पर्श, रस, गंध, रुप, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह और वेग ये गुण मूर्तद्रव्यो के है
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बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, भावना, द्वेष और शब्द ये गुण अमूर्तद्रव्यो के है । संख्या परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग, ये गुण मूर्त और अमूर्त दोनो द्रव्यो के है । इत्यादि गुणो का विशेषस्वरुप स्वयं समज लेना | ॥६३॥
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अथ कर्मव्याचिख्यासुराह - अब कर्मपदार्थ का व्याख्यान करते है ।
(मू. श्लो.) 'उत्क्षेपावक्षेपावाकुञ्चनकं प्रसारणं गमनम् । पञ्चविधं कर्मेतत्परापरे द्वे तु सामान्ये । । ६४ ।।
श्लोकार्थ : उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन ये पांच कर्म है । परसामान्य और अपरसामान्य के भेद से दो प्रकार का सामान्य है | ||६४ ||
व्याख्या- उत्क्षेपः- उर्ध्वं क्षेपणं मुशलादेरूर्ध्वं नयनमुत्क्षेपणं कर्मेत्यर्थः । तद्विपरीतोऽवक्षेपोऽधोनयनमित्यर्थः ।। ऋजुनोऽङ्गुल्यादिद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं कर्माकुञ्चनम् । स्वार्थे कप्रत्यय आकुञ्चनकम् । येन वक्रोऽवयव्यृजुः संपद्यते तत्कर्म प्रसारणम् । यदनियतदिग्देशैः संयोगविभागकारणं तद्गमनम् । अनियतग्रहणेन भ्रमणपतनस्यन्दनरेचनादीनामपि गमन एवान्तर्भावो विभावनीयः । पञ्चविधमेव कर्म क्रियारूपमेतदनन्तरोक्तम् । अथ सामान्यमुच्यते । तुशब्दस्य व्यस्तसंबन्धात्सामान्ये तु द्वे परापरे परमपरं च द्विविधं सामान्यमित्यर्थः ।।६४।।
व्याख्या का भावानुवाद :
उत्क्षेप | = उपर की ओर फेंकना । मुसलादि को उपर की ओर ले जाने की क्रिया को उत्क्षेपण कहा जाता है। उत्क्षेपण से विपरीत अवक्षेपण । अर्थात् नीचे ले जाना । अर्थात् नीचे की ओर ले जाने की क्रिया को अवक्षेपण कहा जाता है
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सीधी ऊंगली आदि द्रव्यो को कूटिलता में कारणभूत क्रिया आकुञ्चन है । अर्थात् सीधी ऊंगली आदि को टेढी करनेवाली क्रिया को आकुञ्चन कहते है । स्वार्थ में "क" प्रत्यय लगकर "आकुञ्चनकम्" शब्द 9. “उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि ” वैश० सू० - १/१/७
A. “ सामान्यं द्विविधम् परमपरञ्च" प्रश० भा० पृ० १६० ।
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