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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६२-६३, वैशेषिक दर्शन
को खोल के छोड दिया जाये तो इस संस्कार कारण पुनः लिपट जाते है । इन उदाहरणो में स्पष्ट रुप से स्थितिस्थापक संस्कार का कार्य दिखाई देता है । (२०)
प्रज्वलनात्मक द्वेष है। उस द्वेष की विद्यमानता में आत्मा में क्रोध प्रज्वलित होता है । इसलिए वह द्वेष होने पर क्रोध से प्रज्वलित आत्मा को माना गया है । द्वेष की विद्यमानता में आत्मा अंदर से जला करता है। द्रोह, क्रोध, अहंकार, अक्षमा, असिहष्णुता आदि द्वेष के ही भेद - रुपान्तर है । (२१)
स्नेह = चीकनाहट, पानी का विशेष गुण है। वह आटा आदि को पिंडीभूत करने में तथा पदार्थो को स्वच्छ करने में कारण बनता है। वह गुरुत्व की तरह नित्य भी है और अनित्य भी है । परमाणुओ का स्नेह नित्य है तथा कार्यद्रव्यो का स्नेह अनित्य है । (२२)
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गुरुत्व = भारीपन | पानी और पृथ्वी की पतनक्रिया का कारण है । अर्थात् गुरुत्व पानी और पृथ्वी को नीचे गीरने में कारण होता है । वह अप्रत्यक्ष = अतीन्द्रिय है । जिस तरह से पानी आदि परमाणुओ के रुपादि नित्य और कार्यद्रव्य अनित्य है । इसी तरह से गुरुत्व भी परमाणुओ में नित्य और कार्यद्रव्य में अनित्य है । (२३)
स्यन्दन = बहने में कारणभूत गुण द्रवत्व है । वह द्रवत्व पृथ्वी, पानी और अग्नि में रहता है । द्रवत्व दो प्रकार का है। (१) साहजिक और (२) नैमित्तिक । पानी में साहजिकद्रवत्व है । परंतु पृथ्वी और अग्नि में अग्नि के संयोग से उत्पन्न होता नैमित्तिक द्रवत्व है। जैसे कि घी, सुवर्ण तथा सीसा इत्यादि में अग्निसंयोग से द्रवत्व उत्पन्न होता है । (२४)
पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और मन, इन मूर्तद्रव्यो में प्रयत्न और अभिघातविशेष से क्रिया होती है तथा क्रिया से वेग उत्पन्न होता है ।
यह वेग(१) नियतदिशा में क्रिया करने में = गति करने में कारण बनता है । अर्थात् वेग के कारण फेंका गया हुआ पत्थर नियत दिशा में ही जाता है। दूसरी दूसरी दिशा में जाता नहीं है । तथा वह स्पर्शवाले पृथ्वी आदि मूर्त पदार्थो के संयोग का विरोधी है । अर्थात् स्पर्शवाले पृथ्वी आदि मूर्तपदार्थो से टकराने के कारण वेग रुक के नष्ट हो जाता है ।
शरीर आदि के प्रयत्न से उत्पन्न होनेवाली क्रिया से बाण में क्रिया और वेग उत्पन्न होते है। इस वेग के कारण बाण बीच में गिर जाता नहीं है और वह बाण नियतदिशा में क्रिया करता है और उसका नियतलक्ष्य के साथ ही संबंध होता है। उससे वेग की सत्ता सिद्ध होती है। पत्थर आदि के अभिघात से वृक्षो की शाखा में क्रिया हो के वेग उत्पन्न होता है ।
किसी (२) आचार्यने संस्कार के तीन प्रकार कहे है । वेग, भावना और स्थितिस्थापक । उनके मतानुसार
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(१) "वेगो मूर्तिमत्सु पञ्चसु.... '
(२) प्रशस्तपादभाष्यकाराः ।
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प्रश. भा. पृ. १३६ ।
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