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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन
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के गुण को अदृष्ट कहा जाता है।
अदृष्ट दो प्रकार का है। एक धर्म और दुसरा अधर्म । धर्म पुरुष का गुण है। कर्ता के प्रिय, हित और मोक्ष में कारण बनता है। अतीन्द्रिय है। अंतिमसुख संविज्ञानविरोधी है। अर्थात् अंतिमसुख का यथार्थज्ञान होने से वह विनाश प्राप्त करता है। अंतिमसुख ही तत्त्वज्ञान के द्वारा धर्म का नाश करता है। जहाँ तक अंतिमसुख है, वहाँ तक धर्म रहता है। (अर्थात् जहां तक तत्त्वज्ञान की पूर्णता होती नहीं है, वहाँ तक धर्म का कार्य सुख चालू रहता है। तत्त्वज्ञान होने के बाद भी प्रारब्धकर्मो के फलरुप अंतिमसुख तक धर्म रहता है। अंतिम सुख को उत्पन्न करने के बाद तत्त्वज्ञान से धर्म का नाश होता है।)
वह धर्म पुरुष और अंत:करण के संयोग से विशुद्ध विचारो के द्वारा वर्णाश्रमधर्म का श्रुति-स्मृतिविहित पालन करने से उत्पन्न होता है। उसके साधन सामान्यरुप से श्रुति-स्मृतिओ में बताये गये अहिंसादि है, विशेषरुप से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के पूजन, अध्ययन, शस्त्रधारण आदि अनेक आचार जानना । (१७)
अधर्म भी आत्मा का गुण है। कर्ता को अहित और प्रत्यपाय का कारण है। अतीन्द्रिय है। अंत्यदुःख -- संविज्ञानविरोधी है। अर्थात् अंतिमदुःख के सम्यग्ज्ञान से विनाश होता है । (अर्थात् तत्त्वज्ञान के बाद प्रारब्धकर्म के फलरुप अंतिमदुःख को उत्पन्न करके तत्त्वज्ञान के द्वारा अधर्म का नाश हो जाता है। (१८)
प्रयत्न - उत्साह अर्थात् कार्य करने का परिश्रम । वह प्रयत्न सुषुप्ति अवस्था में श्वासोश्वास का प्रेरक है। अर्थात् वह प्रयत्न सोते वक्त श्वासोश्वास लेने में प्रेरक बनता है तथा जाग्रत अवस्था में अंतःकरण को इन्द्रियों के साथ संयोग कराता है। हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के लिए उद्यम करवाता है और शरीर को धारण करने में सहायक होता है। _____G-81संस्कारो द्वेधा, भावना स्थितिस्थापकश्च, भावनाख्य आत्मगुणो ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च दृष्टानुभूतश्रुतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानकार्योन्नीयमानसद्भावः, स्थितिस्थापकस्तु मूर्तिमद्द्रव्यगुणः स च घनावयवसंनिवेशविशिष्टं स्वमाश्रयं कालान्तरस्थायिनमन्यथाव्यवस्थितमपि प्रयत्नतः पूर्ववद्यथावस्थितं स्थापयतीति स्थितिस्थापक उच्यते । दृश्यते तालपत्रादेः प्रभूततरकालसंवेष्टितस्य प्रसार्यमुक्तस्य पुनस्तथैवावस्थानं संस्कारवशात् । एवं धनुःशाखाश्रृङ्गदन्तादिषु भुग्ना(मुक्ता)पवर्तितेषु च वस्त्रादिषु तस्य कार्यं परिस्फुटमुपलभ्यते २० । प्रज्वलनात्मको द्वेषःG-82 यस्मिन् सति प्रज्वलितमिवात्मानं मन्यते । द्रोहः क्रोधो मन्युरक्षमामर्ष इति द्वेषभेदाः २१ । स्नेहोऽपां 6-83विशेषगुणः संग्रहमृद्वादिहेतुः । अस्यापि गुरुत्ववत् नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः २२ । गुरुत्वं G-84जलभूम्योः पतनकर्मकारणमप्रत्यक्षम् । तस्याबादिपरमाणुरूपादिवत् नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः २३ । G-85द्रवत्वं स्यन्दनकर्मकारणं त्रिद्रव्यवृत्तिः । तवेधा, सहजं, नैमित्तिकं च । सहजमपां द्रवत्वम् । नैमित्तिकं तु
(G-81-82-83-84-85) - तु० पा० प्र० प० ।
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