________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन
परस्परसंयुक्त भी द्रव्य जिसके कारण “ये दोनो पृथक् है" अपोद्धारव्यवहार - भेद व्यवहार का कारण पृथक्त्व गुण है । (१०)
ܐ
यह ‘“पर = दूर या ज्येष्ठ है” "तथा" यह "अपर= नजदीक या लघु है" इस प्रकार के परापर अभिधान = शब्द प्रयोग में तथा परापरज्ञान में कारणभूत गुण क्रमशः परत्व और अपरत्व है ।
३२७ / ९५०
परत्व और अपरत्व दोनो भी दिशाकृत् और कालकृत् है । अर्थात् दिशा और काल की अपेक्षा से उत्पन्न होते है।
ऐसा भेद स्पष्ट होता हैं, वह
उसमें दिक्कृत् परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति इस अनुसार से होती है, किसी एक देखनेवाला व्यक्ति जब एक ही दिशा में दो पुरुषो को क्रम से खडे रहे हुए देखते है। तो समीपवर्ती पुरुष की अपेक्षा से दुरवर्तीपुरुष को पर = अधिकदिशा के प्रदेशो का संयोग होने से पर = दूर समजता है। अर्थात् वह दुरवर्तीपुरुष में परत्व उत्पन्न होता है। तथा दुरवर्ती पुरुष की अपेक्षा से समीपवर्ती पुरुष को अपर = कम दिशा के प्रदेशो का संयोग होने से अपर
=
- नजदीकसमजते है। अर्थात् समीपवर्ती पुरुष में अपरत्व उत्पन्न होता है। (इसलिए क्रमशः दूरवर्ती और निकटवर्ती पदार्थ में पर और अपर दिशा के प्रदेशो के संयोग से परत्व और अपरत्व गुणो की उत्पत्ति होती है और उस कारण से “यह उससे दूर है" और "यह उससे नजदीक है" ऐसा दूर - समीप का व्यवहार होता है।
कालकृत् परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति इस अनुसार से होती है - जो कोई भी दिशा या देश में वर्तमान (रहे हुए) युवान और स्थविर में युवान की अपेक्षा से चिरकालीन स्थविर में पर = अधिककाल का संयोग हुआ होने से परत्व = ज्येष्ठत्व उत्पन्न होता है तथा स्थविर की अपेक्षा से अल्पकालीन=लघुयुवान में अपर = कम काल का संयोग होने से अपरत्व = कनिष्ठत्व उत्पन्न होता है । (११-१२)
(G--70-71-72-73-74-75-76-77) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
G-70 बुद्धिर्ज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्यम् । सा द्विविधा, विद्याऽविद्या च । तत्राविद्या - 71 चतुविधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्रलक्षणा । G - 72 विद्यापि चतुर्विधा प्रत्यक्ष-लैङ्गिकस्मृत्यार्षलक्षणा । प्रत्यक्षलैङ्गिके प्रमाणाधिकारे व्याख्यास्येते । अतीतविषया स्मृति: G-73 । सा च गृहीतग्राहित्वान्न प्रमाणम् । ऋषीणां व्यासादीनामतीतादिष्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु यत्प्रातिभं तदार्षम् ̈-74 । तच प्रस्तारेणर्षीणां, कदाचिदेव तु लौकिकानां यथा कन्यका ब्रवीति “वो मे भ्राता गन्तेति हृदयं मे कथयति" इति । आर्षं च प्रत्यक्षविशेषः १३ । अनुग्रहलक्षणं सुखम् G-75 १४ । आत्मन उपघातस्वभावं - 76 दुःखं, तच्चामर्षदुःखानुभवविच्छायताहेतुः १५ । स्वार्थं परार्थं चाप्राप्तप्रार्थनमिच्छा - 77, तस्याश्च कामोऽभिलाषो रागः संकल्पः कारुण्यं वैराग्यं वञ्चनेच्छा गूढभाव इत्यादयो भेदाः १६ । कर्तृफलदाय्यात्मगुण
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org