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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६५, वैशेषिक दर्शन
के कारण होने से सामान्य और विशेष दोनो तरह से सिद्ध है ।
यहाँ जो सत्ता के संबंध से=समवाय से सत् माना जाता है, ऐसा कहा वह मात्र द्रव्य, गुण और कर्म में ही जानना। अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन ही पदार्थ सत्ता के समवाय से सत् माने जाते है। परंतु आकाशादि में नहीं । आकाश काल और दिशा में स्वरुपात्मक अस्तित्व माना गया है। आकाश में जाति नहीं मानी जाती है। क्योंकि आकाश आदि एक - एक ही व्यक्ति है । श्रीउदयनाचार्यने कहा है कि, "व्यक्ति का अभेद, तुल्यत्व, संकर, अनवस्था, रुपहानि और असंबंध ये छ: जाति - बाधक है" अब इस श्लोक की व्याख्या करते है ।
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(१) व्यक्ति का अभेद : व्यक्ति का अभेद । अर्थात् व्यक्ति का अकेलापन जाति में बाधक है। क्योंकि सामान्य तो अनेक व्यक्तिओ में रहता है, आकाश में व्यक्ति का अभेद होने से अर्थात् आकाश एक ही होने से उसमें आकाशत्व जाति नहीं मानी जाती। (उसी तरह से काल आदि भी एक होने से कालत्वादि भी जाति नहीं मानी जाती ।)
(२) तुल्यत्व : पृथ्वी में पृथ्वीत्वजाति होने पर भी यदि उसमें भूमित्व को जाति कहा जाये तो तुल्यत्वजाति बाधक दोष आयेगा । अर्थात् पृथ्वी में पृथ्वीत्व और भूमित्व नाम की समानार्थक दो जातियां रहती नहीं है। क्योंकि दोनो की व्यक्ति तुल्य है। तथा वे दोनो समानार्थक है । इसलिए पृथ्वीत्व से तुल्यता होने से भूमित्व अतिरिक्त जाति नहीं बनता।
(३) संकर : (एक दूसरे के) अभाव के साथ समानाधिकरण हो ऐसे दो धर्म किसी एक स्थान में रह जाना वह सांकर्यदोष है । यह दोष जाति का बाधक है। (जैसे कि "परमाणुत्व," को जाति के रुप में मानने में यह सांकर्य दोष आता है। घट में परमाणुत्व नहीं है। पृथ्वीत्व है। जलीय परमाणुओ में परमाणुत्व है, पृथ्वीत्व नहीं है। तथा पार्थिव परमाणुओ में परमाणुत्व और पृथ्वीत्व दोनो है ।)
परमाणुत्व को जाति मानने से उसका पृथ्वीत्व, जलत्व, अग्नित्व और वायुत्व इन सभी के साथ (उपर बताये अनुसार) सांकर्य होता है । इसलिए परमाणुत्व जाति नहीं है। (मात्र एक धर्मविशेष है।)
(४) अनवस्था : सामान्य (जाति) में ही जाति मानने में मूल का क्षय करनेवाला अनवस्थादोष आता है। (अकाल्पनिक कल्पनाओ की कहीं भी विश्रांति न होना वह अनवस्थादोष है। मान लो कि जगत में घटत्व, पटत्व, कटत्व आदि तीन जातियां ही है । ये तीनो के बारे में, "यह जाति, यह जाति, यह जाति ।'' इत्याकारक अनुगतप्रतीति तो होती ही है। इसलिए ये तीनो में रही हुई हो ऐसी एक "अ" जाति माननी पडेगी । अब जगत में चार जाति हुई । उन चारो में भी " यह जाति, यह जाति, यह जाति" इस अनुसार से अनुगताकारक बुद्धि होती है। इसलिए उन चारो में रहनेवाली "ब" जाति माननी पडेगी। इस तरह से कुल मिलाके पांच जातियां हुई। वे भी सभी में समानाकारकबुद्धि तो होती ही है। इसलिए आगे उसमें रहनेवाली नयी छट्ठीजाती माननी पडेगी । इस तरह से कल्पनाओ का अंत ही नहीं आयेगा । अनवस्था चलेगी। इस अनवस्था नाम के जातिबाधक के कारण सामान्य (जाति) में जाति नहीं मानी जाती है ।
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