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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६२, ६३, वैशेषिक दर्शन
ही प्रत्यक्ष के योग्य माना गया है। इस तरह से आगे-आगे महान परिमाणवाले द्रव्यो की उत्पत्ति जानना। (कहने का मतलब यह है कि तीन या चार द्व्यणुक से उत्पन्न होनेवाला कार्यद्रव्य त्र्यणुक कहा जाता है। दो व्यणुको से उत्पन्न होनेवाले कार्यद्रव्य को त्र्यणुक कहा नहीं जा सकता क्योंकि दो व्यणुको से उत्पन्न कार्य में इन्द्रियो में ग्रहण करने योग्य महत्त्वपरिमाण होता नहीं है। त्र्यणुकद्रव्य ही इन्द्रियग्राह्य है। इस तरह से आगे आगे महान परिमाणवाले कार्यद्रव्यो की उत्पत्ति होती जाती है। विशेष में "कारण द्रव्य का परिमाण कार्य में स्व-सजातीय उत्कृष्टपरिमाण को उत्पन्न करता है।" ऐसा नियम है । यदि परमाणु के परिमाण को व्यणुक के परिमाण में कारण मानोंगे तो उसमें अणु परिमाण के सजातीय उत्कृष्ट अणुतरपरिमाण की उत्पत्ति होगी। इसलिए परमाणु के परिमाण को कार्य के परिमाण में कारण न मानते हुए परमाणु की संख्या को कारण माना जाता है। जिससे व्यणुक में अणु परिमाण की ही उत्पत्ति होती है, नहि कि अणुतरपरिमाण से। इस तरह से यदि व्यणुक के अणुपरिमाण को त्र्यणुक के परिमाण में कारण मानोंगे, तो उसमें भी अणुजातीय - उत्कृष्ट - अणुतरपरिमाण से ही उत्पत्ति होगी, (कि जो इष्ट नहीं है।) इसलिए व्यणुको में रहनेवाली बहुत्वसंख्या को कारण मानने से ही त्र्यणुक में महापरिमाण की उत्पत्ति हो सकती है। इसी कारण से तीन व्यणुक से त्र्यणुक की उत्पत्ति बताई है। दो व्यणुक से नहि। दो व्यणुक में बहुत्व संख्या नहीं है, द्वित्वसंख्या ही रहती है।) गुण २५ प्रकार के है, वह स्पष्ट है । ॥६१॥ गुणस्य पञ्चविंशतिविधत्वमेवाह - अब पच्चीस गुणो का ही निरुपण करते है। (मू. श्लो.)G-58स्पर्शरसरूपगन्धाः शब्दः संख्या विभागसंयोगौ ।
परिमाणं च पृथक्त्वं तथा परत्वापरत्वे च ।।६२ ।। बुद्धिः सुखदुःखेच्छाधर्माधर्मप्रयत्नसंस्काराः ।
द्वेषः स्नेहगुरुत्वे द्रवत्ववेगौ गुणा एते ।।६३ ।। युग्मम् ।। श्लोकार्थ : स्पर्श, रुप, रस, गंध, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रवत्व और वेग, ये पच्चीस गुण है। ॥६२-६३॥
व्याख्या-5 स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकज्वलनपवनवृत्तिः १ । G-60रसोरसनेन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकवृत्तिः २ । चक्षुह्यंG-61 रूपं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति, तञ्च रूपं जलपरमाणुषु तेजःपरमाणुषु च नित्यं, पार्थिवपरमाणुरूपस्य त्वग्निसंयोगो विनाशकः । सर्वकार्येषु च कारणरूपपूर्वकरूपमुत्पद्यते, उत्पन्नेषु हि व्यणुकादिकार्येषु पश्चात्तत्र रूपोत्पत्तिः, निराश्रयस्य कार्यरूपस्यानुत्पादात् । तथा कार्यरूपविनाशस्याश्रयविनाश एव हेतुः । पूर्वं हि कार्यद्रव्यस्य नाशः, तदनु च रुपस्य, आशुभावाञ्च क्रमस्याग्रहणमिति ३ ।
(G-58-59-60-61) - तु० पा० प्र० प० ।
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