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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन
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रुपादि गुण होने से किसी द्रव्य के आश्रय में ही रह सकते है और इसलिए द्रव्य की उत्पत्ति से पहले उसकी उत्पत्ति हो सकती नहीं है।" ऐसा कहकर पीछे से "कार्यद्रव्य का विनाश होने के बाद द्रव्य का रुप नाश होता है।" ऐसा कहते नैयायिकोको पूर्वापरविरोध आता है। क्योंकि नैयायिको ने पहले कहा कि, गुण आधारद्रव्य के बिना रह सकता नहीं है और बाद में कहा कि कार्यद्रव्य का नाश होने से रुप का नाश होता है। उससे वह सिद्ध हुआ कि कार्यद्रव्य का विनाश होने पर भी रुप निराश्रय रहकर बाद में विनाश पायेगा। अर्थात् कार्यद्रव्य का नाश होने के बाद द्वितीयक्षण में रुपादि का नाश होगा, ऐसा मानते है। इसलिए नैयायिक एक ओर द्रव्य की उत्पत्ति के समय में रुपादि में निराधारता न आये, इसलिए उसकी उत्पत्ति कार्यद्रव्य की उत्पत्ति की दूसरी क्षण में मानी और दूसरी ओर कार्यद्रव्य के विनाश के समय रुपादि को कार्यद्रव्य के नाश के बाद की क्षण में नाश पाता कहकर (कम से कम एक क्षण) रुपादि गुण की निराधारता का विधान किया, वह सचमुच पूर्वापरविरोध है।
साङ्ख्यस्य त्वेवं स्ववचनविरोधः । प्रकृतिर्नित्यैका निरवयया निष्क्रियाऽव्यक्ता चेष्यते । सैवानित्यादिभिर्महदादिविकारैः परिणमत इति चाभिधीयते, तञ्च पूर्वापरतोऽसंबद्धम् १ । अर्थाध्यवसायस्य बुद्धिव्यापारत्वाञ्चेतनाविषयपरिच्छेदरहितार्थं न बुध्यत इत्येतत्सर्वलोकप्रतीतिविरुद्धम् २ । बुद्धिर्महदाख्या जडा न किमपि चेतयत इत्यपि स्वपरप्रतीतिविरुद्धं ३ । आकाशादिभूतपञ्चकं स्वरादितन्मात्रेभ्यः सूक्ष्मसंज्ञेभ्य उत्पन्नं यदुच्यते तदपि नित्यैकान्तवादे पूर्वापरविरुद्धं कथं श्रद्धेयम् ४ । यथा पुरुषस्य कूटस्थनित्यत्वान्न विकृतिर्भवति नापि बन्धमोक्षौ तथा प्रकृतेरपि न ते संभवन्ति कूटस्थनित्यत्वादेव, कूटस्थनित्यं चैकस्वभावमिष्यते ततो ये प्रकृतेर्विकृतिर्बन्धमोक्षौ चाभ्युपगम्यन्ते परैः, ते नित्यत्वं च परस्परविरुद्धानि ५ ।।
व्याख्या का भावानुवाद : सांख्यो केमत में स्ववचनविरोध इस अनुसार से है- सांख्य एक ओर प्रकृति को नित्य, एक, निरवयव, निष्क्रिय और अव्यक्त कहते है और दूसरी ओर उसी प्रकृत्ति का अनित्य, अनेक सावयव, सक्रिय और कार्यरुप महान अहंकार आदि रुप से परिणमन मानते है। वह सचमुच पूर्वापर से असंबद्ध वचन है। क्योंकि नित्यादिधर्मोवाली प्रकृति का अनित्यादिधर्मवाली महान् = बुद्धि आदि में परिणमन किस तरह से हो सकता है ? (१)
पदार्थ का निश्चय बुद्धि के व्यापार से होता होने से चैतन्य विषयपरिच्छेद से रहित है। अर्थात् चैतन्य पदार्थ का निश्चायक नहीं है, ऐसा कहना वह लोकप्रतीति और अनुभव से विरुद्ध है। कहने का मतलब यह है कि, सांख्य अर्थ के निश्चय को बुद्धि का धर्म मानते है तथा चैतन्य को बाह्य विषयो के परिज्ञान से शून्य मानते है-ये दोनो बातें लोकप्रतीति से विरुद्ध है। जगत में सभी लोग मानते है तथा अनुभव में आता चैतन्य ही मुख्यतया पदार्थो का परिज्ञाता है। (२)
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