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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ६१, वैशेषिक दर्शन
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है । छाया और अंधकार तेजोद्रव्य के अभावरुप है । इसलिए द्रव्यरुप नहीं है। भू = पृथ्वी । पृथ्वी कठोर होती है। वह मिट्टी, पाषाण, वनस्पतिरुप में होती है। जल पानी, वह पानी सरोवर, समुद्र, ओस आदि अनेकरूपो में होता है। तेज = अग्नि । उसके चार प्रकार है । (१) काष्ठ के लकडे (इन्धन) से उत्पन्न हुआ भौम जाति का, (२) सूर्य और बिजली आदि का दिव्य जाति का, (३) भोजन आदि के पाचन में कारणभूत औदर्य, (४) खान में से उत्पन्न होते सुवर्णादि आकरज ।
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अनिल = वायु । इस पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के अनेक प्रकार दिखाई देते है | अंतरिक्ष = आकाश । आकाश नित्य, एक, अमूर्त और विभु द्रव्य है । विभु का अर्थ है विश्वव्यापक । आकाश शब्दरुपलिंग द्वारा अनुमेय है । क्योंकि शब्द आकाश का गुण है ये पांच का द्वन्द्व समास हो के "भूजलतेजोऽनिलान्तरिक्षाणि " यह पद बना हुआ है।
पर और अपर प्रत्ययो के व्यतिकर से तथा इस कार्य साथ हुआ, उस कार्य क्रम से हुआ, यह कार्य जल्दी हुआ यह कार्य विलंब से हुआ, इत्यादि प्रत्ययरुपलिंग से काल द्रव्य की सिद्धि होती है। (कहने का मतलब यह है कि... दिशा, गुण, जाति की अपेक्षा से जो समीपवर्ती अधमजातीय मुर्खपुरुष में अपरप्रत्यय होता है, उसमें काल द्रव्य जवान विद्वान युवक की अपेक्षा से परप्रत्यय करवाता है। तथा जो दूरदेशवर्ती जवान विद्वानयुवक में दिशा आदि की अपेक्षा से परप्रत्यय होता है, उसमें काल द्रव्य अधमजातीय मूर्ख वृद्ध की अपेक्षा से अपरप्रत्यय करवाता है। इस तरह से वे पर- अपरप्रत्ययो की विपरीतता दिशा आदि से भिन्न कालद्रव्य की सत्ता सिद्ध करती है। तथा " यह कार्य एक साथ हुआ, यह कार्य क्रम से हुआ, यह कार्य जल्दी हुआ, यह कार्य विलंब से हुआ" इत्यादि काल संबंधी प्रत्यय भी कालद्रव्य की सिद्धि करते है ।)
तथा पिता ज्येष्ठ है । पुत्र कनिष्ठ है। "युगपत्, क्रम से, शीघ्र, या धीरे धीरे कार्य हुआ या होगा" इत्यादि परापरादिप्रत्यय सूर्य की गति तथा अन्य द्रव्यो से उत्पन्न न होते हुए दूसरे किसी द्रव्य की अपेक्षा से होता है। क्योंकि सूर्यकी गति आदि में होनेवाले प्रत्ययो से यह प्रत्यय विलक्षण प्रकार का है। जैसे कि, घट से होनेवाला “यह घट है", ऐसा प्रत्यय, सूर्य की गति आदि से भिन्न घट नाम के पदार्थ की अपेक्षा रखे, उसी तरह से परापरादिप्रत्यय भी सूर्य की गति आदि से भिन्न कालद्रव्य की अपेक्षा रखते है । इसलिए परापरादिप्रत्यय का जो निमित्त है, वह (अन्य सभी निमित्तो को निषेध होने से) पारिशेषन्याय से कालद्रव्य । इस तरह से कालद्रव्य की सिद्धि होती है । वह एक, नित्य, अमूर्त और विभु द्रव्य है ।
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दिशा द्रव्य भी एक, नित्य, अमूर्त और विभु है । मूर्तद्रव्यो में परस्पर मूर्तद्रव्यो की अपेक्षा से यह उससे पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में, उत्तर में, अग्निकोण में, नैऋत्य कोण में, वायव्य कोण में, इशानकोण में उपर और नीचे है। इस अनुसार से दस प्रत्यय जिससे होते है वह दिशा है। वह दिशा एक होने पर भी (मेरुपर्वत की चारो ओर परिभ्रमण करनेवाले सूर्य का जब भिन्न-भिन्न दिशा के प्रदेशो में रहनेवाले लोकपालो के द्वारा ग्रहण की हुई दिशा के प्रदेशो में संयोग होता है तब ) कार्यविशेष से उसमें पूर्वपश्चिम आदि अनेक प्रकार का व्यवहार होने लगता है। आत्मा - जीव, नित्य-अमूर्त और विभु द्रव्य है ।
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