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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
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है। (और फिर भी आप एक ईश्वर में अनेक धर्मो का स्वीकार करके अनेकांतवाद का समर्थन ही करते हो।) (४)
आप एक आंवले में कुवलय (कमल) की अपेक्षा से महत्त्व तथा बिल्वफल की अपेक्षा से अणुत्व, इस तरह से परस्पर विरुद्ध धर्मो को मानते है । वह अनेकांतवाद का ही समर्थन है। (५)
इस अनुसार से आप एक गन्ने में इक्षु के सांठे में किसी यज्ञ में उपयोगी लकडी की अपेक्षा से दीर्घत्व और बांस की अपेक्षा से हुस्वत्व मानते हो, वह भी अनेकांतवाद का ही स्वीकार है। (६) देवदत्तादि में अपने पिता की अपेक्षा से लघुता और अपने पुत्र की अपेक्षा से ज्येष्ठता होती है। (७)
अपरसामान्य को सामान्यविशेष कहते हो । अर्थात् अपरसामान्य एक विशेषप्रकार का सामान्य है। द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व सत्ता की अपेक्षा से अपरसामान्य सामान्यविशेष है। द्रव्यत्व पृथ्वी आदि नौ द्रव्यो में अनुगत होने से सामान्यरुप है। वह द्रव्यत्व गुण - कर्म से व्यावृत्त होता होने से विशेषरुप है। इस अनुसार से गुणत्व और कर्मत्व की भी सामान्यरुपता और विशेषरुपता का विचार करे। (गुणत्व सभी गुणो में अनुगत होने से सामान्यरुप है। तथा द्रव्य और कर्म से व्यावृत्त होता होने से विशेषरुप है। इस तरह से कर्मत्व के लिए सोचना ।) इसलिए जो सामान्य भी है और विशेष भी है, उसे सामान्य-विशेष कहा जाता है। इस प्रकार एक द्रव्यत्वादि में परस्परविरुद्ध सामान्यता और विशेषता का स्वीकार करना वह अनेकांतवाद का ही स्वीकार है। (८) ___एकस्यैव हेतोः पञ्च रूपाणि संप्रतिपद्यन्ते ९ । एकस्यैव पृथिवीपरमाणोः सत्तायोगात्सत्त्वं, द्रव्यत्वयोगाद्रव्यत्वं, पृथिवीत्वयोगात्पृथिवीत्वं, परमाणुत्वयोगात्परमाणुत्वं अन्त्याद्विशेषात्परमाणुभ्यो भिन्नत्वं चेच्छतां परमाणोस्तस्य सामान्यविशेषात्मकता बलादापतति, सत्त्वादीनां परमाणुतो भिन्नतायां तस्याऽसत्त्वाऽद्रव्यत्वा-ऽपृथिवीत्वाद्यापत्तेः १० । एवं देवदत्तात्मनः सत्त्वं द्रव्यत्वम्, आत्मत्वयोगादात्मत्वम्, अन्त्याद्विशेषाद्यज्ञदत्ताद्यात्मभ्यो भिन्नतां चेच्छतां तस्यात्मनः सामान्यविशेषरुपतावश्यं स्यात् । एवमाकाशादिष्वपि सा भाव्या ११ । योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनःसु च प्रत्याधारं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययो येभ्यो भवति तेऽन्त्या विशेषा, इत्यत्र तुल्याकृतिगुणक्रियात्वं विलक्षणत्वं चोभयं प्रत्याधारमुच्यमानं स्याद्वादमेव साधयेत् १२ । एवं नैयायिकवैशेषिका आत्मनानेकान्तमुररीकृत्यापि तत्प्रतिक्षेपायोद्यच्छन्तः सतां कथं नोपहास्यतां यान्ति । किं च, अनेकान्ताभ्युपगमे सत्येष गुणः परस्परविभक्तेष्ववयवावयव्यादिषु मिथोवर्तनचिन्तायां यदूषणजालमुपनिपतति तदपि परिहतं भवति । तथाहि-अवयवानामवयविनश्च मिथोऽत्यन्तं भेदोऽभ्युपगम्यते नैयायिकादिभिर्न पुनः कथञ्चित् । ततः पर्यनुयोगमर्हन्ति ते । अवयवेष्ववयवी वर्तमानः किमेकदेशेन वर्तते किं वा
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