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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
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स्वरूपाजहवृत्तान्वयव्यतिरेकत्वात्, निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणस्य हि हेतोर्यथाप्रदर्शितान्वयव्यतिरेकरूपत्वात् । न च जैनानां हेतोरेकलक्षणताभिधानमनेकान्तस्य विघातकमिति वक्तव्यं, प्रयोगनियम एवैकलक्षणो हेतुरित्यभिधानात्, न तु स्वभावनियमे, नियतैकस्वभावस्य शशशृङ्गादेरिव निःस्वभावत्वात्, इति कथं न हेतोरनेकान्तात्मकता ।
व्याख्या का भावानुवाद : (बौद्ध हेतु में पक्षधर्मत्वादित्रिरुपता का स्वीकार करके हेतु को प्रामाणिक - साध्य का गमक मानते थे। वैसी अवस्था में टीकाकारश्रीने तत्पुत्रत्वादि हेतुओ में पक्षधर्मत्वादि त्रिरुपता होने पर भी वे हेतु साध्य के गमक बनते नहीं है, इसलिए हेतु में त्रिरुपता होने मात्र से वह सत्य बनता नहीं है, ऐसा सिद्ध किया। तब नैयायिक कहते है कि हम हेतु में पंचरुपता मानते है, इसलिए हमारा हेतु तो सत्य ही है। ऐसे अभिप्राय से नैयायिक पूर्वपक्ष के रुप में अपना पक्ष प्रदर्शित करते है। वह “अस्ति च.... चेत् ?" तक के शंकाग्रंथ में टीकाकारश्रीने ग्रहण किया है।)
नैयायिक : आपके अभिप्राय से तीनरुपवाले तत्पुत्रत्वादि हेतु चाहे असत्य हो । परंतु उससे तो पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व तथा विपक्षासत्त्व, ये हेतु के तीन रुप में अविनाभाव की परिसमाप्ति मानते बौद्धो को यह दोष आयेगा। अर्थात् आपने बताया हुआ दोष, चाहे बौद्धो को होगा परंतु हमको तो नहीं है। क्योंकि हम पंचलक्षण हेतुवादि है। अर्थात् हमने हेतु के पांच रुप माने है। हमारे द्वारा हेतु के पक्षधर्मत्वादि तीनरुपो के साथ साथ असत्प्रतिपक्षत्व और प्रत्यक्षागमाबाधितविषयत्व, ये दो रुपो का भी स्वीकार किया गया है। अर्थात् हम लोगो ने हेतु का पक्ष में रहना, सपक्ष में रहना तथा विपक्ष में न रहना, हेतु के ये तीन स्वरुप माने है। उसके साथ साथ प्रत्यक्ष और आगम से हेतु का बाधित न होना तथा साध्याभाव की सिद्धि करनेवाले प्रतिपक्ष का हेतु न होना, ये दो स्वरुप भी हेतु के माने है। इसलिए हमारे मत से हेतु का अविनाभव पांचरुपो से पूर्ण होता है।
जैन : (यदि पांच रुप होने से ही हेतु सत्य बन जाता है।) तो केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी हेतुओं में पांच रुपो का असंभव होने से वे हेतु भी साध्य के अगमक बनने का प्रसंग आयेगा। कहने का मतलब यह है कि, केवलान्वयी हेतु में विपक्षासत्त्व के सिवा चार ही रुप होते है तथा केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्षसत्त्व के सिवा चार ही रुप होते है। अर्थात् केवलान्वयी हेतु में विपक्षासत्व और केवलव्यतिरेकी हेतु में सपक्षसत्त्व रुप होता नहीं है। इस प्रकार उन दोनो में चार ही रुप है, पांचरुप नहीं है। इसलिए केवलान्वयी
और केवलव्यतिरेकी हेतु साध्य का गमक बनता नहीं है। परंतु उन दोनो का अगमकत्व नैयायिको को इष्ट नहीं है। अर्थात् केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी हेतु को नैयायिक साध्य का गमक मानते है । उसको हेत्वाभास मानते नहीं है। नैयायिक मत में चार रुपवाले हेतु भी सत्य बनते ही है।
इस प्रकार हेतु की त्रिरुपता या पंचरुपता ही हेतु की प्रमाणता में नियामक नहीं है। परंतु अविनाभाव
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