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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
संबंध मानते हो? या संयोगसंबंध मानते हो ? या विरोध मानते हो? या विशेषण-विशेष्यभाव मानते हो या तादात्म्य मानते हो? या तदुत्पत्ति मानते है ?
उपर्युक्त में विकल्पो साध्यधर्म और धर्मी में समवायसंबंध तो माना नहि जा सकेगा। क्योंकि धर्म और धर्मी को छोडकर उन दोनो में रहनेवाला कोई अतिरिक्त संबंध किसी भी प्रमाण से प्रतीत होता नहीं हैअनुभव में आता नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि "यह धर्म है, यह धर्मी है और यह उसका समवाय हैं।" इस तरह से समवाय का धर्म और धर्मी से भिन्न प्रतिभास होता हो तो समवाय की सत्ता मान सकते है। परन्तु तादृश प्रतिभास तो होता ही नहीं है - अनुभव में आता ही नहीं है।) "इस तंतु में पट है" इत्यादि प्रत्यय, जो समवाय की सिद्धि के लिए आगे किये जाते है। वह तो सचमुच अलौकिक है। उपानह (जूते) के बिना चलनेवाले गांव के किसान को भी "कपडे में तंतु है" ऐसी प्रतीति होती है। (और "इस कपडे में तंतु है", ऐसा कहते सुनते मिलते नहीं है।) तथा ("इहेदं" प्रत्यय से समवाय की सिद्धि करोंगे तो) "इह भूतले घटाभाव" इस भूतल में घट का अभाव है, इस प्रत्ययसे भी भूतल और घटाभाव में समवाय की सिद्धि हो जानी चाहिए।
चलो, समवाय की सत्ता मान भी ले। परंतु समवाय की धर्म और धर्मी आदि में स्वतः ही वृत्ति मानोंगे तो (अर्थात् समवाय की सत्ता मान भी ले, परंतु वह धर्म और धर्मी में यदि दूसरे संबंध के बिना ही अपने आप रह जाता हो तो) समवाय की तरह साध्यादि धर्म भी अपने धर्मी में स्वतः ही रह जाये न ! । उसमें निरर्थक समवाय की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है?
समवाय की दूसरे किसी समवाय से धर्म और धर्मी में वृत्ति मानोंगे तो वह समवाय भी अपने संबंधियों में कोई तीसरे समवाय से रहेगा, तीसरा चौथे से.... इस अनुसार से अनेक समवायो की कल्पना करने में अनवस्थानदी तैरनी कठिन बन जायेगी। अनवस्थादूषण आ जायेगा। असत् कल्पना से मान भी ले, कि) समवाय की अपने संबंधियो में स्वतः या परतः चाहे वृत्ति हो, तो भी वह सर्वत्र तुल्य और एक होने से सभी संबंधियो में व्यापक होने के कारण “समवाय अमुक संबंधीयों में ही संबंध करता है।" ऐसा नहि कहा जा सकेगा । (इसलिए तंतु का पट की तरह घट में भी समवाय हो जायेगा ।)
यदि साध्य और साधन का परस्पर संयोगसंबंध मानोंगे, तो वह संयोग उससे भिन्न या अभिन्न है ? (वह बताना चाहिए)
यदि साध्य-साधन से संयोग भिन्न है, तो "विवक्षित साध्य-साधन का ही संयोग है। अन्यो का संयोग नहीं है।" यह नियम नहि बन सकेगा। क्योंकि भेद में विशेषता नहीं है। अर्थात् संयोग विवक्षित साध्य-साधन से जितना भिन्न है, उतना ही अन्य अविवक्षित साध्य-साधन से भी भिन्न है ही। तो फिर विवक्षित साध्य-साधन का ही संयोग करे और अविवक्षित साध्य-साधन का संयोग न करे, ऐसा किस तरह से कहा जा सकता है?
संयोग कुछ विवक्षित साधन-साध्य के साथ संबंध कर सकता है और कुछ अविवक्षित साधन-साध्य
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