________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग- २, श्लोक ५८, जैनदर्शन
प्रथमपश्चादभिहितयोर्मिथोविरोधोऽस्ति,
ग्रथितग्रन्थ'कथासु तथा जैनदर्शने क्वापि केवलिप्रणीतद्वादशाङ्गेषु पारम्पर्यग्रन्थेषु च सुसंबद्धार्थत्वात्सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्षितोऽपि स नास्ति । यत्तु परदर्शनेष्वपि क्वचन सहृदयहृदयङ्गमानि वचनानि कानिचिदाकर्णयामः तान्यपि जिनोक्तसूक्तसुधासिन्धुसमुद्गतान्येव संगृह्य मुधा स्वात्मानं बहु मन्वते 1 यच्छ्रीसिद्धसेनपादाः-“सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तिसंपदः । तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुषः ।। १ ।।” [ द्वात्रिंश.] इति । अत्र परे प्राहुः - अहो आर्हता ! अर्हदभिहिततत्त्वानुरागिभिर्युष्माभिरिदमसंबद्धमेवाविर्भावयांबभूवे यदुत युष्मद्दर्शनेष्वपि पूर्वापरयोर्विरोधोऽस्तीति । न ह्यस्मन्मते सूक्ष्मेक्षणैरीक्षमाणोऽपि विरोधलेशोऽपि क्वचन निरीक्ष्यते, अमृतकरकरनिकरेष्विव कालिमेति चेत् ? उच्यते । भोः ! स्वमतपक्षपातं परिहृत्य माध्यस्थ्यमवलम्बमानैर्निरभिमानैर्धीप्रधानैः प्रतिभाद्यवधानं
विदधानैर्निशम्यते, तदा वयं भवतां सर्वं दर्शयामः ।
व्याख्या का भावानुवाद :
प्रश्न : जैनदर्शन का संक्षेप से ही क्यों वर्णन किया है ?
२९७ / ९२०
उत्तर : जैनदर्शन अगाध है । उसका विस्तार से वर्णन करना संभव नहीं है । अगाध समंदर को तैरना जैसे कठिन है, वैसे अगाधजैनदर्शन का विस्तार से एक जगह पे वर्णन करना संभव नहीं है। इसलिए ही उपयोगी सारभूतवस्तु का वर्णन किया है। वही जैनदर्शन का संक्षेप है। फिर भी प्रत्यक्ष से उपरोक्त प्रकारो
द्वारा कहे गये जैनदर्शन का संक्षेप निर्दोष है। क्योंकि जैनदर्शन सर्वज्ञमूलक है। अर्थात् जैनदर्शन के मूल वक्ता सर्वज्ञ होने के कारण उसमें दोषो की कलुषिता का अवकाश नहीं है। जैनदर्शन में कहीं भी जीवादि पदार्थो की विचारणा करने समय अतिसूक्ष्म चर्चा में भी पहले कहे हुए में और बाद में कहे हुए में लेशमात्र भी परस्परविरोध आता नहीं है । कहने का मतलब यह है कि जिस अनुसार से अन्यदर्शन संबंधी मूलशास्त्रो में भी पहले कहे हुए में और बाद में कहे हुए में परस्परविरोध है । तो फिर उस उस अन्यदर्शन के बाद में केवल अपने मत की पुष्टि करने के लिए विप्रलंभको के द्वारा रचे गये ग्रंथो में विरोध हो उसमें आश्चर्य क्या है? सारांश में जिस अनुसार से अन्यदर्शन के मूलग्रंथो के और शिष्यपरंपरा में रचे गये अन्यग्रंथो के पूर्वापर कथन में परस्परविरोध है, उस अनुसार से जैनदर्शन में कहीं भी केवलिप्ररुपित द्वादशांगी में या उसके बाद की शिष्य परंपरा में रचे गये (उत्तरकालीन) ग्रंथो में सूक्ष्मेक्षिका से निरीक्षण करने पर भी परस्परविरोध नहीं है । क्योंकि जैनदर्शनकारों का कथन सर्वत्र सुसंबद्ध होता है ।
तदुपरांत, अन्य मत में भी कहीं सहृदय विद्वान लोगो के चित्त में विस्तरित हुए सुंदर हृदयहारि वचन सुनने को मिलते है। वह वस्तुत: जैनवचनरुप समुद्र से निकले हुए सुंदर वचनो को ग्रहण करके अपने शास्त्र में १ कथा । २ प्रतिभाव यद्यवधानं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org