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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन
क्षणभंगुर कहते है और दूसरी ओर उससे विपरीत कहते है । कि... जो पदार्थ कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक रखता नहीं है, वह कारण बन सकता नहीं है और जो पदार्थ कारण बन सकता नहीं है, वह ज्ञान का विषय भी बन सकता नहीं है। (बौद्ध के द्वारा किये गये इस विधान का टीकाकार श्री स्वयं अर्थ करते है - ) उस सूत्र का अर्थ यह है - ज्ञान पदार्थ होने से ही उत्पन्न होता है । पदार्थ के अभाव में उत्पन्न होता नहीं है। इसलिए ज्ञान के साथ अन्वय-व्यतिरेक होते है वह पदार्थ ज्ञान में कारण बनता तथा जो पदार्थ से ज्ञान उत्पन्न होता है, उस पदार्थ को ज्ञान विषय बनाता है। अर्थात् जिस पदार्थ से ज्ञान उत्पन्न होता है उस पदार्थ को ज्ञान जानता है। इस अनुसार से कहने से (अर्थात् जो पदार्थ को ज्ञान का कारण कहा यही पदार्थ को ज्ञान का विषय कहने से) पदार्थ की दो क्षण तक स्थिति माननी पडेगी । वह इस तरह से - पदार्थ ज्ञान का कारण है, उस पदार्थरुप कारण से ज्ञानरुपकार्य उत्पन्न होता है । वह उत्पन्न होता कार्य द्वितीयक्षण में ही उत्पन्न होता है, क्योंकि कार्य और कारण सम - समय में रहते नहीं है । क्योंकि कारण पूर्वक्षण में होता है। कार्य उसकी उत्तरक्षण में उत्पन्न होता है। इसलिए कार्य और कारण की क्षण समान होती नहीं है। इसलिए ज्ञान अपने जनक ऐसे पदार्थ को ही ग्रहण करता है, दूसरे को नहि । क्योंकि उनका वचन है कि, यदि ज्ञान का कारण नहीं है, तो ज्ञान का विषय नहीं है। (इस अनुसार से वह पदार्थ कारण होने से वह ज्ञान के एक क्षण पहले रहेगा और विषय होने के कारण ज्ञान के साथ भी रहेगा । इसलिए) पदार्थ की दो क्षणस्थिति बलात्कार से भी माननी पडेगी। इस अनुसार से एक ओर पदार्थ की द्विक्षणस्थति मानना और दूसरी ओर संसार के समस्तपदार्थो को क्षणभंगुर मानना वह विरुद्ध है । इस तरह से बौद्धमत में पूर्वापरविरोध आता है । (१)
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आप बौद्धोने "जो ज्ञान का कारण नहीं है, वह ज्ञान का विषय भी नहीं है" - ऐसा कहकर योगीप्रत्यक्ष में अतीतकालीन और अनागतकालीन पदार्थ भी विषय बनते है वैसा कहा। परंतु वह योग्य नहीं है। क्योंकि अतीत विनाश हुआ होने से और अनागत उत्पन्न हुआ न होने से योगीप्रत्यक्ष का कारण बन सकता नहीं है और अतीत-अनागत अर्थ योगीप्रत्यक्ष का कारण न होने पर भी उसको विषय तो आप कहते ही हो। इसलिए पूर्वापर में विरोध है। (कहने का मतलब यह है कि जो ज्ञान का कारण नहीं है, वह ज्ञान का विषय भी नहीं है । इस नियमानुसार तो त्रिकालवर्ती सभी पदार्थो को जाननेवाले योगीज्ञान में अतीत, अनागत और वर्तमान सभी पदार्थो को कारण मानने ही पडेगे। परंतु अतीत तो अतीत होने के कारण विनष्ट है तथा अनागत उत्पन्न हुआ ही नहीं है तो फिर वे दोनो योगीज्ञान में कारण किस तरह से बन सकेगा ? और यदि योगीज्ञान में अतीत और अनागत पदार्थ कारण न होने पर भी विषय वनता हो तो आपके बनाये हुए नियम में विरोध होने से अवश्य पूर्वापरविरोध है ही ।) (२)
इस अनुसार से त्रिकालवर्ती साध्य और साधन को जाननेवाले व्याप्तिग्राहकज्ञान में त्रिकालवर्ती पदार्थ कारण बनता न होने पर भी विषय होता है। तो फिर पूर्वापर का व्याघात क्यों न कहा जाये ? क्योंकि आप लोगो ने अकारण को प्रमाण (ज्ञान का) विषय माना नहीं है। (यहाँ त्रिकालवर्ती पदार्थ कारण न होने पर भी विषय बनने से पूर्वापरविरोध स्पष्ट है ही ।) (३)
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