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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५८, जैनदर्शन
गूंथ लिये है और उल्टा अपनी जात को बडी मानते है। जिससे श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरिजीने कहा है कि... "हे भगवान् ! यह बात सुनिश्चित है कि परशास्त्रो में जो कहीं भी कुछ सुयुक्तियां = सुवचन स्कुरायमान है, वह (मूलतः) आपका ही है । वह जिनवचनरुपी समुद्र में से उछले हुए पानी के बिंदु ही है। इसलिए जिनवचन ही सुयुक्तियों का समुद्र है और प्रमाणरुप है । जगत उसको ही व्यवहार में प्रमाणभूत मानता है।"
परवादि : अरे जैनो! श्रीजिनशासनकथित तत्त्व के अनुरागवाले आपके द्वारा हमारे मत में पूर्वापरविरोध है, ऐसा कहा जाता है, वह आपका असंबद्धवचन है। क्योंकि हमारे वचनो में सूक्ष्म बुद्धि से देखने पर भी विरोध का लेश भी देखने को मिलता नहीं है। पूर्णचन्द्र के धवल किरणो में कालिमा किस तरह से हो सकती है?
जैन : हे परवादियो ! आप लोग जल्दबाजी मत करे । आप लोग स्वमत का आग्रह छोडकर मध्यस्थता का आलंबन करके, निराभिमानी बनकर स्वबुद्धि - प्रतिभा को अवधान -- सावधान करके सुनिए । हम सभी पूर्वापरविरोध बताते है।
तथाहि प्रथमं तावत्ताथागतसंमते मते पूर्वापरविरोध उद्भाव्यते । पूर्वं सर्वं क्षणभङ्गुरमभिधाय पश्चादेवमभिदधे 'नाननुकृतान्वयव्यतिरेक कारणं, नाकारणं विषय' इति अस्यायमर्थः-ज्ञानमर्थे सत्येवोत्पद्यते न पुनरसतीत्यनुकृतान्वयव्यतिरेकोऽर्थो ज्ञानस्य कारणम् । यतश्चार्थाज्ज्ञानमुत्पद्यते तमेव तद्विषयीकरोतीति । एवं चाभिदधानेनार्थस्य क्षणद्वयं स्थितिरभिहिता । तद्यथा-अर्थात्कारणाज्ज्ञानं कार्यं जायमानं द्वितीये क्षणे जायते न तु समसमये कारणकार्ययोः समसमयत्वायोगात् । तञ्च ज्ञानं स्वजनकमेवार्थं गृह्णाति नापरं 'नाकारणं विषय' इति वचनात् । तथा चार्थस्य क्षणद्वयं स्थितिर्बलादायाता सा च क्षणक्षयेण विरुद्धति पूर्वापरविरोधः १ । तथा नाकारणं विषय इत्युक्त्वा योगिप्रत्यक्षस्यातीतानागतादिरप्यर्थो विषयोऽभ्यधायि । अतीतानागतश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेन तस्य कारणं न भवेत् । अकारणमपि च तं विषयतयाभिदधानस्य पूर्वापरविरोधः स्यात् २ । एवं साध्यसाधनयोर्व्याप्तिग्राहकस्य ज्ञानस्य कारणत्वाभावेऽपि त्रिकालगतमर्थं विषयं व्याहरमाणस्य कथं न पूर्वापरव्याघातः, अकारणस्यप्रमाणविषयत्वानभ्युपगमात् ३ । तथा क्षणक्षयाभ्युपगमेऽन्वयव्यतिरेकयोभिन्नकालयोः प्रतिपत्तिर्न संभवति । ततः साध्यसाधनयोस्रिकालविषयं व्याप्तिग्रहणं मन्वानस्य कथं न पूर्वापरव्याहतिः ४ । व्याख्या का भावानुवाद :
अब अन्यमत में पूर्वापरविरोध किस तरह से है वह बताया जाता है। उसमें प्रथम बौद्धमत में जो पूर्वापरविरोध है, उसका उद्भावन किया जाता है । बौद्ध एक ओर जगत के समस्त पदार्थो को
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