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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
बताया जाता है। ___ इन्द्रियार्थसन्निकर्षादि से धूमज्ञान उत्पन्न होता है और धूमज्ञान से अग्निज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ इन्द्रियसन्निकर्षादि प्रत्यक्ष प्रमाण है। उसका फल धूमज्ञान है तथा धूमज्ञान अग्निज्ञान की अपेक्षा से अनुमानप्रमाण है। परंतु अग्निज्ञान अनुमानफल है। इसलिए इस अनुसार से धूमज्ञान में प्रत्यक्षफलता और अनुमान प्रमाणता उभय का समावेश होता है। इस प्रकार नैयायिकों एक धूमज्ञान में उभयरुपता का स्वीकार करते है। (तो किस तरह से अनेकांतवाद का प्रतिक्षेप कर सकेंगे।)
इस अनुसार से अन्यत्र भी ज्ञान में पूर्वोतर अपेक्षा से ज्ञानता और प्रमाणता यथायोग्य जानना । अर्थात् पूर्व-पूर्व साधकतम अंशो में प्रमाणता तथा उत्तरोत्तर साध्य अंशो में फलरुपता समज लेना । इस प्रकार एक ही ज्ञान में प्रमाणता और फलरुपता का स्वीकार करना वह अनेकांतवाद का ही समर्थन है। (१) __ नैयायिकोने एक ही अनेकरुपवाले पटादि अवयवी का चित्र-विचित्ररुप माना है। एक ही अवयवी में चित्र-विचित्ररुप को मानने में वे कोई विरोध नहीं बताते है। इसलिए ही न्यायकंदली में (श्रीधराचार्य ने विरोध परिहार करते हुए) कहा है कि...
शंका : एक अवयवी में अनेक स्वभाव-रुप मानने में तो विरोध दूषण आता है। इसलिए एक अवयवी को चित्ररुप मानना अयुक्त है। किसी वादि ने कहा भी है कि... यदि एक है, तो चित्र अनेकरुपवाला किस तरह से हो सकता है ? यदि चित्र अनेकरुपवाला है, तो उसमें एकता किस तरह से हो सकती है ? एकता और चित्रता में तो विरोध है। एक भी कहना और चित्र भी कहना अयुक्त है।
समाधान : रुप को चित्र मानना अयुक्त नहीं है। क्योंकि चित्र रुपवाले कारणो के सामर्थ्य से होनेवाले रुप को चित्र मानने में कोई विरोध नहीं है। तथा लोकप्रसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण से यह वस्तु सभी को अनुभव में आती ही है। (२)
एक ही धूपदान के एक भाग में शीतस्पर्श और दूसरे भाग में उष्णस्पर्श होता है। यद्यपि (धूमदानरुप) अवयवी के अवयव भिन्न होने पर भी उन अवयवो का अवयवी एक ही है। उन अवयवी में ही परस्पर विरोधी शीत और उष्णस्पर्श प्राप्त होता ही है। वैशेषिको का भी इस अनुसार से सिद्धांत है कि... "एक ही पटादि अवयवी में एक भाग में चलरुपता = क्रिया होना, हिलना तथा दूसरे भाग में अचल - स्थिर रहना, एक भाग में रक्तता और एक भाग में अरक्तता, एक भाग में (दूसरे कपडो के द्वारा) आवृत्त = ढका हुआ और दूसरे भाग में अनावृत्त, ऐसे अनेक विरोधिधर्मो की उपलब्धि होती है। फिर भी उसमें विरोध की कोई गंध नहीं है।" (३)
वे नित्य एक ईश्वर में जगत का सर्जन करने की इच्छा, जगत का प्रलय - संहार करने की इच्छा, रजोगुण-तमोगुणरुप स्वभाव तथा अनेक सात्त्विक भावो को मानते है। उसमें स्पष्ट रुप से परस्परविरोध है। एक ही ईश्वर को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, कालरुप अष्टमूर्ति मानने में स्पष्ट रुप से विरोध
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