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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
भावानुवाद करेंगे।)
(ज्ञानाद्वैतवादि योगाचार ज्ञानाकार और अर्थाकार को अभिन्न मानते है। उस उस ज्ञान से भिन्न किसी बाह्य अर्थ की सत्ता का स्वीकार नहीं करता है । ज्ञान ही ग्राह्यपदार्थ के आकार में तथा ग्राहक-ज्ञान के आकार में प्रतिभासित होता है। इस तरह से एक ही संवेदन में परस्पर भिन्न ग्राह्याकार और ग्राहकाकार का स्वयं अनुभव करनेवाले योगाचार स्यावाद का अपलाप किस तरह से कर सकते है ? उनका ग्राह्यग्राहकाकारसंवेदन भी स्वयं अनेकांतवाद का समर्थन ही करता है। संवेदनमात्र परमार्थ से ग्राह्य और ग्राहक दोनो भी आकारो से सर्वथा शून्य-निरंश है। परन्तु संवेदन की वह ग्राह्य ग्राहकादि आकारशून्यता स्वप्न में भी आपके द्वारा अनुभव में आई नहीं है। और यदि संवेदन का यह वास्तविक ग्राह्य-ग्राहकादि आकार रहित निरंश स्वरुप का अनुभव होने लगे तो सभी प्राणीयों को तत्त्वज्ञान होने से, तत्काल-तुरंत ही मुक्ति हो जायेगी। क्योंकि, "तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति ही मुक्ति है।" यह सर्वसंमत सिद्धांत है। संवेदन की संवेदनरुपता का अनुभव तो सभी जीवो को होता ही रहता है। इस तरह से एक ही संवेदन का ग्राह्य-ग्राहक आकार शून्यता की दृष्टि से अनुभव न होना, तथा उसकी संवेदनस्वरुपता की दृष्टि से अनुभव होना वह अनेकांतवाद का ही रुप है। एकही संवेदन में अनभतता तथा अननभततारुप उभयधर्मो को माननेवाले बौद्ध अनेकांतवाद का अपलाप नहीं कर सकते है और अनेकांतवाद का विरोध करने से संवेदन के स्वरुप का ही लोप हो जायेगा । इस तरह से सभी ज्ञानो के स्वसंवेदनज्ञान की ग्राह्यादि आकार शून्यता अनुभवपथ में आती न होने से संवेदनरुपता का अनभव अवश्य करता ही है। इस तरह से एक ही ज्ञान को निरंशताकी दष्टि से अनिश्चयात्मक तथा संवेदनरुप की दृष्टि से निश्चयात्मक मानने से स्वयं उसके एकांतवाद का खंडन करके स्याद्वाद की सिद्धि कर दी है। संवेदन का ग्राहयाकार भी एक साथ अनेक पदार्थो के आकार में परिणत होके एक होने पर भी चित्र-विचित्ररुप से प्रतिभासित होता है। एक ग्राह्यकार की यह चित्ररुपता भी अनेकांत का स्थापन तथा एकांतवाद का खंडन कर देती है। ___पंक्ति का भावानुवाद : ज्ञानवादि योगाचार भी स्वाकार – ज्ञानाकार और अर्थाकार को अभिन्न मानते है। (ज्ञान ही ग्राह्यपदार्थ के आकार में तथा ग्राहकज्ञान के आकार में प्रतिभासित होता है इसलिए) एक ही संवेदन में (परस्पर) भिन्न ऐसे ग्राह्याकार और ग्राहकाकार का स्वयं अनुभव करने वाला योगाचार किस तरह से स्यावाद का खंडन करते है। (१) । (संवेदनमात्र परमार्थतः ग्राह्य और ग्राहक दोनो भी आकारो से सर्वथा शून्य-निरंश है। परन्तु) संवदेन की वह ग्राह्य-ग्राहक आकारविकलता स्वप्न में भी आपके द्वारा अनुभव में आई नहीं है। अथवा तो संवेदन की ग्राह्य-ग्राहकाकारविकलता का (अनुभव होने लगे तो उस) अनुभव में सभी जीवो को तत्त्वज्ञान उत्पन्न होने से तत्काल ही मुक्त हो जाने की आपत्ति आयेगी। क्योंकि "तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति ही मुक्ति है।" यह शास्त्रवचन है और संवेदन की संवेदनरुपता कथंचित् अनुभव में आती ही है। इसलिए एक ही संवेदन में अनुभूतता - अननुभूतता उभय को माननेवाले बौद्ध संवेदन में प्रतिभास होने वाला अनेकांतवाद का अपलाप करने के लिए समर्थ बनते नहीं है । (२) सर्व ज्ञानो के स्वसंवेदन की ग्राह्य-ग्राहकाकारक शून्यता आत्मा में अनुभव के तौर पर आती नहीं है। (और इसलिए)
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