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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
नानाकार्याणि कुर्वाणः कस्मानिषिध्यते । अथ नित्यस्यैकस्वभावत्वेन नानाकार्यकरणं न घटते, तीनित्यस्यापि तेषां करणं कथमस्तु ? निरंशैकस्वभावत्वात् । सहकारिभेदाचेत्कुरुते ? तर्हि नित्यस्यापि सहकारिभेदात्तदस्तु । अथ नानास्वभावैरनित्यः कुर्यादिति चेत् ? नित्यस्यापि तथा तत्करणमस्तु । अथ नित्यस्य नानास्वभावा न संभवन्ति, कूटस्थनित्यस्यैकस्वभावत्वात्, तमुनित्यस्यापि नानास्वभावा न सन्ति, निरंशैकस्वभावत्वात् । तदेवं नित्यस्यानित्यस्य च समानदोषत्वान्नित्यानित्योभयात्मकमेव वस्तु मानितं वरम् । तथा चैकान्तनित्यानित्यपक्षसंभवं दोषजालं सर्वं परिहतं भवतीति १२ । व्याख्या का भावानुवाद :
वैसे ही, सौत्रान्तिकमत में स्वीकार किया गया है कि एक ही कारण भिन्न-भिन्न सामग्री के वश से अनेक भिन्न-भिन्न कार्यो को उत्पन्न करता है। (सौत्रान्तिक एक ही कारण को भिन्न-भिन्न सामग्री के सहकार से एक साथ अनेक कार्यो का उत्पादक मानते है।)
जैसे कि, रुप-रस-गंधादि सामग्रीगत रुप उपादानभावेन स्वोत्तररुपक्षण को उत्पन्न करता है और वह रुपक्षण उत्तररसादि क्षणो की उत्पत्ति में सहकारी बनती है। अर्थात् जैसे रुप-रस-गंध आदि सामग्रीगत एक ही रुपक्षण अपनी उत्तर रुपक्षण को उपादान बनकर उत्पन्न करती है। वही रुपक्षण उत्तर रसादिक्षणो की उत्पत्ति में सहकारी होती है। वही रुपक्षण रुप, आलोक मनस्कार, चक्षुरादि ज्ञानसामग्री में अन्तर्भाव पाकर पुरुष के रुपज्ञान में आलंबनकारण बनती है तथा आलोक आदि की उत्तरक्षणो में सहकारी कारण बनती है अर्थात् वही रुप-आलोकमनस्कार-चक्षुरादि की उत्तरक्षण में सहकारी बनती है।
"तदेवमेकं..." इसलिए इस अनुसार से (होने से आप जबाव दिजीये के) अनेक कार्यो को एकसाथ करता कारण क्या एक ही स्वभाव से अनेक कार्यो को उत्पन्न करता है या नाना प्रकार के स्वभाव से अनेक कार्यो को उत्पन्न करता है? यदि अनेक कार्यो को एकसाथ उत्पन्न करता कारण एक ही स्वभाव से ही अनेक कार्यो को उत्पन्न करता हो तो वह कारण एक स्वभाव के द्वारा कार्य करता होने से कार्यो का भेद नहि होगा। अर्थात् कार्यो में भिन्नता नहि आयेगी। तथा नित्य भी पदार्थ एक स्वभाव से अनेक कार्यो को उत्पन्न करता हो, तब (कार्य अभिन्न-एक स्वरुप बन जायेंगे, ऐसी आपत्ति देकर, उसका) निषेध क्यों करते हो?
अब (यदि आप ऐसा कहोंगे कि) नित्य पदार्थ का एक स्वभाव होने के कारण "अनेक कार्य उसके द्वारा उत्पन्न होते है" ऐसा कहना संगत होता नहीं है। तो (हमारा कहना है कि...) तो फिर अनित्य पदार्थ भी किस तरह से भिन्न-भिन्न कार्यो को उत्पन्न कर सकेगा? क्योंकि आपने अनित्य पदार्थ को निरंश और एक स्वभाववाला ही स्वीकार किया है। अर्थात् नित्य पदार्थ यदि एक स्वभाववाला होने से भिन्न-भिन्न कार्यो को उत्पन्न कर सकता न हो, तो निरंश और एक स्वभाववाला अनित्य पदार्थ भी किस तरह से भिन्न भिन्न कार्यो को उत्पन्न कर सकेगा?
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