________________
२७२/८९५
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
अभेद दिखाई देता है। अर्थात् घटोत्पत्ति के पूर्व मिट्टी के पिंड में "यह मिट्टी है" तथा घट अवस्था में "यह मिट्टी है" ऐसा अन्वय देखने को मिलता है। (प्रश्न : यदि घट में सर्वथा भेदजाति नहीं है या सर्वथा अभेदजाति भी नहीं है, तो घट में किस जाति का स्वीकार करते हो? उत्तर (हम) घट में सर्वथा भेदरुप
और सर्वथा अभेदरुप दोनो जातियों में अतिरिक्त भेदाभेद जाति का स्वीकार करते है। __यहाँ श्लोक में "हि" शब्द हेतु में है। अर्थात् "हिं" शब्द का “यस्मात् जिस कारण से" अर्थ है (जिस कारण से वह घट.. इत्यादि करना ।) (श्लोक का भावार्थ यह है कि.. मिट्टी के घट में मिट्टी और घट का सर्वथा अभेद भी नहीं माना जा सकता और सर्वथा भेद भी नहीं माना जा सकता। घटका मिट्टी रुप से सर्वथा अभेद भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वह मिट्टी भिन्न थी और यह मिट्टी भिन्न है। अवस्थाभेद तो निश्चित है ही। उसमें सर्वथा भेद भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि मिट्टीरुप से अन्वय दिखाई देता है। पिंड भी मिट्टी का ही था और घट भी मिट्टी का ही है। इसलिए घट सर्वथा अभेद और सर्वथा भेदरुप दो जातियों से अतिरिक्त एक कथंचित् भेदाभेदरुप तीसरी जाति का ही है। उस अवस्था में घट सर्वथा मिट्टीरुप नहीं है और मिट्टी में से अन्य द्रव्यरुप भी नहीं बन गया है। परंतु द्रव्यरुप से मिट्टी का घट में अन्वय है। तथा पर्यायरुप से भेद है। पिंडावस्था में घटाकार नहीं है, घटावस्था में घटाकार है। इसलिए पर्यायरुप से भेद है। फिरभी दोनो अवस्था में मिट्टीरुप से अन्वय तो है ही ।(२) ।
जो पदार्थ भागद्वयात्मक है, वह एक भाग में सिंहाकार है और एक भाग में नराकार है। (फिर भी उसमें एक) अन्वयी = अविभागी द्रव्य है। तथा (अवयवो की दृष्टि से) विभाग भी है। उसे नरसिंह कहा जाता है। वह नरसिंह मात्र नररुप नहीं है, क्योंकि (कुछ खास अंश में) सिंहरुप भी है तथा वह नरसिंह केवल सिंहरुप नहीं है, । क्योंकि (कुछ अंश में नररुप भी है।) वैसे ही नरसिंह के वाचकशब्द से नर और सिंह का वाचकशब्द भिन्न है। नरसिंहाकार के ज्ञान से नर और सिंह का ज्ञान भिन्न है। तथा नरसिंह के कार्य से नर और सिंह का कार्य भिन्न है। इसलिए नरसिंह नररुप और सिंहरुप दो जातियों से) भिन्न तीसरी जाति है। (३-४) (नरसिंहावतार की चर्चा दार्शनिक जगत में प्रसिद्ध है। वह नरसिंह मुख आदि अवयवो में सिंह के आकार का है तथा अन्य पैर आदि अवयवो की दृष्टि से मनुष्य के आकार का है। अर्थात् उन दोनो प्रकार के अवयवो का अखंड अविभागीरुप नरसिंह है। उसमें भेददृष्टि से नर और सिंह की कल्पना की जाती होने पर भी वस्तुतः उन दोनो अवयवो से तादात्म्य रखनेवाला अखंडपदार्थ है। उसको नर भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अंशतः सिंहरुप भी है तथा उसको सिंह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अंशतः नररुप भी है। वह नरसिंह तो उन दोनो से भिन्न एक तीसरी मिश्रितजाति का अखंड पदार्थ है, कि जिसमें वे दो भाग दिखाई देते है। विशेष सुगम है।)
(इस तरह से घट में भेदाभेदरुप तीसरी जाति का तथा नरसिंह में उभय से भिन्न तीसरी जाति का स्वीकार करना वही अनेकांतवाद का समर्थन है।)
हेतु का लक्षण त्रिरुप या पंचरुप कहने वाले परवादि भी एकवस्तु में सत्त्व असत्त्व, नित्य-अनित्य आदि सभी धर्मो का स्वीकार क्यों नहीं करते है? वह आश्चर्य है। (५) (कहने का मतलब यह है कि पक्षधर्मता, सपक्षसत्त्व,
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org