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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
( " जो ज्ञान जो पदार्थों का आकार होता है, वह उसी ही पदार्थ को जानता है, निराकारज्ञान पदार्थ को जान नहीं सकता ।" इस तदाकारता के नियम को बौद्धोने प्रमाणता का नियामक माना है। इस नियमानुसार नाना रंगवाले चित्रपट को जाननेवाला ज्ञान भी चित्राकार ही होगा । इसलिए एक ही चित्रपटज्ञान को अनेक आकारवाला मानना (अर्थात् एक को ही चित्र-विचित्र रुप मानना) वह अनेकांतवाद का ही स्वीकार है ।)
पंक्ति का भावानुवाद : उस अनुसार से अर्थाकारज्ञान ही अर्थ का ग्राहक है, अन्यथा नहि, ऐसा मानने वाले बौद्धो ने चित्रपट का ग्राहकज्ञान एक होने पर भी अनेक आकारवाला स्वीकार किया । (वही अनेकांतवाद का स्वीकार है) (९)
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(उपर बताये नियमानुसार संसार के समस्त पदार्थों को जाननेवाले सुगत का ज्ञान सर्वाकार अर्थात् चित्रविचित्रकार होना ही चाहिए । इस तरह से एक ही ज्ञान को सर्वाकार से मानना वह भी अनेकांत का ही समर्थन है। वैसे ही, बौद्ध हेतु के तीन स्वरुप मानते है। पक्ष में रहने स्वरुप पक्षधर्मता, सपक्ष दृष्टांत में उसकी सत्ता के कारण अन्वयात्मक तथा विपक्ष में उसकी सत्ता न होने के कारण व्यतिरेकात्मक मानते है । इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक को स्पष्ट रुप से विरोध होने पर भी एक ही हेतु में स्वीकार करना वह अनेकांत का स्वीकार ही है ।)
पंक्ति का भावानुवाद : तथा सर्वार्थविषयक तथा सर्वार्थाकारक सुगत का ज्ञान चित्र क्यों न बन सकेगा ? तथा एक ही हेतु में पक्षधर्म - पक्ष में हेतु का रहना और सपक्षरुप दृष्टांत में रहने द्वारा अन्वय तथा विपक्ष में नहि रहने से (अन्वय से विरुद्ध) व्यतिरेक अर्थात् एक ही हेतु में परस्पर विरुद्ध अन्वय और व्यतिरेक आप लोग स्वीकार करते हो और उसे तात्त्विक मानने वाले आप लोग अनेकांत का स्वीकार करते ही हो ।
इस अनुसार से वैभाषिक आदि बौद्ध स्वयं स्याद्वाद का स्वीकार करके भी, अनेकांतवाद में विरोध का उद्भावन करते है . वे अपने शासन - दर्शन के अनुराग के अंधकार के समूह से लुप्त बनी हुई विवेकीहीन दृष्टिवाले बौद्ध विवेकीपुरुषो को सुनने के लिए योग्य भी होते नहीं है। अपने शास्त्रव्यवहार तथा लोकव्यवहार
सौत्रान्तिकमत
एकमेव
स्याद्वाद का भरपूर उपयोग करके भी स्याद्वाद का अपलाप करनेवाले बौद्ध विवेकहीन है। विवेकहीन लोगो ने स्याद्वाद ने दिये गये विरोधो को विवेकीपुरुष सुनने के लिए भी तैयार होते नहीं है । किञ्च कारणमपरापरसामग्र्यन्तः पातितयानेककार्यकार्याऽऽविद्यते, यथा रूपरसगन्धादिसामग्रीगतं रूपमुपादानभावेन स्वोत्तरं रूपक्षणं जनयति, रसादिक्षणांश्च सहकारितया, तदेव च रूपं रूपालोकमनस्कारचक्षुरादिसामग्र्यन्तरगतं सत्पुरुषस्य ज्ञानं सहकारितया जनयति । आलोकाद्युत्तरक्षणांश्च तदेवमेकं कारणमनेका कार्याणि युगपत्कुर्वाणं किमेकेन स्वभावेन कुर्यात्, नानास्वभावैर्वा ? यद्येकेन स्वभावेन, तर्ह्येकस्वभावेन कृतत्वात्कार्याणां भेदो न स्यात् । अथवा नित्योऽपि पदार्थ एकेन स्वभावेन
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