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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
फल में रहे हुए रुप और रस में भी वैयधिकरण्य मानना पडेगा। (कि जो किसीको मान्य नहीं है . )
पहले दिये गये संकर और व्यतिकर दोष भी मेचकज्ञान के दृष्टांत द्वारा दूर करने चाहिए। जैसे अनेक रंगो का मिश्रित प्रतिभास करानेवाला मेचकरत्न का ज्ञान एक होने पर भी अनेक प्रकार का या अनेक स्वभाववाला है। उस मेचकरत्न के ज्ञान में संकर या व्यतिकर दोष नहीं माने गये। वैसे वस्तु को सत्त्वअसत्त्व आदि अनेकधर्मोवाली मानने में भी संकर या व्यतिकर दोष नहीं है ।
तदुपरांत, जैसे मध्यमा और कनिष्ठ उंगली के संयोग में (उन दोनो की अपेक्षा से सोचने से) एक अनामिका उंगली में एक साथ ह्रस्वत्व और दीर्घत्व धर्म आते है । फिर भी उसमें संकरादि दोष नहीं माने जाते, वैसे वस्तु की अनेकांतात्मकता में भी संकरादि दोष नहीं है ।
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तथा आपने जो "जल में भी अग्निरुपता का प्रसंग" इत्यादि कहा था, वह भी महामोहरुप प्रमाद में मस्त व्यक्ति का प्रलाप मात्र ही है। क्योंकि... जलादि की स्वरुप की अपेक्षा से ही जलरुपता है। परंतु पररुप की अपेक्षा से जलरुपता नहीं है, कि जिससे जलार्थिओ की अग्नि आदि में प्रवृत्ति करने का प्रसंग आये ।
जगत की समस्त वस्तु स्व-पर पर्याय की अपेक्षा से सर्वात्मक मानी गयी है। अर्थात् जगत की सभी वस्तुयें कोई वस्तु के साथ स्व- पर्याय से और कोई वस्तु के साथ पर-पर्याय से संबंध रखती है। इसलिए किसी के साथ अस्तित्वरुप से और किसी के साथ नास्तित्वरुप से संबंध होने से सर्ववस्तुयें सर्वात्मक मानी जाती है। अन्यथा वस्तु का स्वरुप ही हो नहीं सकेगा। (यहाँ याद रखना कि पानी का अपनी शीतलता आदि के साथ जो स्वपर्यायरुप से अस्तित्वात्मक संबंध है, तो अग्नि आदि के साथ पर - पर्यायरुप से नास्तित्वात्मक संबंध भी है। फिर भी पानी पानी रुप से सत् है । अग्निरुप से तो असत् है । इसलिए पानी का अर्थी आत्मा अग्नि में प्रवृत्ति करता नहीं है ।)
उपरांत, भूत और भविष्य की गति से = अपेक्षा से जलपरमाणुओ में भी भूत - भावि=वह्नि परिणाम की अपेक्षा से वह्निरुपता है ही । ( कहने का मतलब यह है कि..... पुद्गल द्रव्य का विचित्र परिणमन होता है। जो अभी जलरुप में होता है वह भावि में अग्निरुप में भी परिणमन पा सकता है और वह भूतकाल में अग्निरुप था वैसा भी कहा जा सकता है और वह भूत- भावि पर्याय की अपेक्षा से जल में अग्निरुपता मानने में बाध नहीं है।) गरम किये हुए पानी में कथंचित् अग्निरुपता ( पानी की) स्वीकार की ही गई है।
जब सत्त्व और असत्त्व प्रत्यक्ष बुद्धि में स्पष्टतया प्रतिभास होता है, तब (उसमें आपने दी हुई) प्रमाणबाधा का प्रसंग ही कहां आता है ? दृष्ट = प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ में असंगति का नामोनिशान होता नहीं है । अन्यथा (= प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ में भी असंगति को आगे करोंगे तो) प्रत्येक स्थान पे प्रमाणबाधा का प्रसंग आयेगा ।
प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ के अभाव की कल्पना करना भी संभव नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ का अपलाप करने से अतिप्रसंगदोष तथा प्रमाणादि सर्व व्यवहारो का लोप होता है। उसके योग से जगत के सर्वपदार्थ का अभाव सिद्ध हो जायेगा ।
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