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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
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(बौद्ध निर्विकल्पकदर्शन = प्रत्यक्षको प्रमाणरुप भी मानते है और अप्रमाणरुप भी मानते है । उनका मत है कि, निर्विकल्पकदर्शन - प्रत्यक्ष का विषय बनता पदार्थ क्षणिक भी होता है और अक्षणिक भी होता है। अनादिकालीन अविद्या और पदार्थो की प्रतिक्षण सदृशरुप से उत्पत्ति होना - इत्यादि कारणो से वस्तु में "यह वही वस्तु है।" इस प्रकार का नित्यत्व का आरोप हो जाता है। इस मिथ्या आरोप के कारण वस्तु नित्यरुप में भासित होने लगती है। निर्विकल्पक दर्शन यह नित्यत्व के आरोप में प्रमाण नहीं है। वह उसका समर्थन करता नहीं है। वैसे ही क्षणिक वस्तु में नित्यत्वरुप विपरीत आरोप होने के कारण दर्शन उसमें प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन तो वस्तु के अनुसार ही उत्पन्न होता है। इस तरह से निर्विकल्पकदर्शन नित्यत्व के आरोप में भी प्रमाण तो है ही नहीं, प्रत्युत अप्रमाण ही है।
यद्यपि निर्विकल्पकदर्शन क्षणिक अंश का अनुभव कर लेता है। परंतु "वह क्षणिक है" ऐसे अनुकूलविकल्प को उत्पन्न करता न होने से क्षणिक अंश में भी वह प्रमाण नहीं है। यदि निर्विकल्पक दर्शन ही क्षणिक अंशो में प्रमाण हो जाये तो अनुमान से क्षणिकत्व की सिद्धि करने की कोई आवश्यकता रहेगी ही नहीं। और ऐसी स्थिति में "सर्व क्षणिक है, सत् होने से" यह अनुमान निरर्थक ही बन जायेगा। (कि जो बौद्धो को इष्ट नहीं है।) इस तरह से निर्विकल्पक दर्शन क्षणिकअंश में भी प्रमाण नहीं है। नीलादि अंशो में तो “यह नील है" ऐसे प्रकार के अनुकूल विकल्प को उत्पन्न करने के कारण प्रमाणरुप माना जाता है।
तात्पर्य यह है कि, एक ही निर्विकल्पकदर्शन को नीलादि अंशो में अनुकूल अध्यवसाय की उत्पत्ति होती होने से प्रमाणरुप तथा क्षणिक और अक्षणिक अंशो में अप्रमाणरुप बौद्ध मानते है। उससे सिद्ध होता है कि वे एक वस्तु में अनेकधर्मो का स्वीकार करते है। इसलिए उनको जबरदस्ती से भी हमारे स्याद्वाद का अनुसरण करना ही पड़ता है, वह स्वीकार किये बिना और कोई चारा ही नहीं है । वे एक ही निर्विकल्पकज्ञान को प्रमाण और अप्रमाणरुप मानकर अनेकांतवाद का ही समर्थन करते है।)
पंक्ति का भावानुवाद : (पहले बौद्ध अनेकांत का किस तरह से स्वीकार करते है, वह प्रकाशित किया जाता है।) निर्विकल्पकदर्शन द्वारा क्षणिक और अक्षणिकसाधारण अर्थ को विषय कराता होने से किसी भ्रम के कारण (अर्थात् अनादिकालीन अविद्या इत्यादि कारणो से वस्तु क्षणिक होने पर भी) अक्षणिकत्व का आरोप होने पर भी वह निर्विकल्पकदर्शन अक्षणिकत्व अंश में प्रमाण नहीं है। परंतु अप्रमाण है। क्योंकि विपरीत अध्यवसाय (विकल्पो) से उत्पन्न हुआ है। तथा वह दर्शन क्षणिकत्व अंश में भी प्रमाण नहीं है। क्योंकि "यह क्षणिक है" इत्याकारक (अनुरुप) अध्यवसाय को उत्पन्न कर सकता नहीं है। परंतु वही दर्शन नीलरुप में "यह नील है।" ऐसे प्रकार का निश्चय कराता होने से प्रमाण है। इस अनुसार से बौद्ध वादियों ने एक ही निर्विकल्पकदर्शन में क्षणिकअंश और अक्षणिकअंशो को लेकर अप्रामाण्य और नीलादि अंश को लेकर प्रामाण्य बताया। इस तरह से (एक ही जगह पे भिन्न-भिन्न धर्मो का स्वीकार करते बौद्धो को) हमारे अनेकांतवाद का बलात्कार (जबरदस्ती) से भी स्वीकार करना ही पड़ता है। (१) इस प्रकार एक तरह से बौद्ध अनेकांतवाद का स्वीकार करते है, वह बताया अब दूसरी तरह से बताया, जाता है।
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