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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
है। अर्थात् सहकार देकर गति-स्थिति में उपकारक बनते है । जैसे कि, सदाव्रत में रहने से भिक्षा सुलभ बनने से वहा बसता हुआ भिखारी । “भिक्षा हमको बसाती है।" ऐसा कहता है। उसमें सदाव्रत रखने का काम करता है । फिर भी भिक्षा के निमित्त से वर्हां बसना होता होने से वह भिक्षा रखने का काम करता ऐसा कहा जाता है।
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उसी ही तरह से "कंडील की (दियेकी) अग्नि पढाती है" ऐसे प्रयोग में अग्नि पढाता नहीं है। परंतु अग्नि का प्रकाश पढने में सहायक होता है। उसी तरह से उपर भी सोच लेना ।
शंका : आप लोगोने धर्म और अधर्म द्रव्य को लोकव्यापी मानने में कोई युक्ति दी नहीं है । जो तत्त्वार्थसूत्र ५।१० में उसकी गति और स्थिति में सहायकता स्वरुप उपकार बताया है, वह भी संज्ञामात्र कथनमात्र ही है । युक्ति से सर्वथा शून्य है ।
समाधान : हम युक्तियां बताते है, आप सावधान होकर सुनिये ।
स्वत: गति और स्थिति में परिणाम प्राप्त हुए जीवो और पुद्रलो की गति और स्थिति अपनी उत्पत्ति में परिणामी, कर्ता = निर्वर्तक और निमित्तरुप तीन कारणो से अतिरिक्त चौथे उदासीन कारण की अपेक्षा रखती है। क्योंकि वह गति और स्थिति स्वाभाविक पर्याय नहीं है । तथा कोई कोई बार होता है । जैसे कि, उदासीनकारण ऐसे पानीकी गति में अपेक्षा रखती मछली । अर्थात् मछली पानी बिना गति कर सकती नहीं है, उदासीन ऐसे पानी की अपेक्षा रखती है। उपरोक्त अनुमान से गति और स्थिति में उदासीन कारण के रुप में धर्म और अधर्म द्रव्य की सिद्धि होती है।
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अवगाहनां धर्मादिनामवकाशदायित्वेनोपकारेणाकाशमनुमीयते 1 अवकाशदायित्वं चोपकारोऽवगाहः, स चात्मभूतोऽस्य लक्षणमुच्यते । मकरादिगत्युपकारकारिजलादिदृष्टान्ता अत्राप्यनुवर्तनीयाः । नन्वयमवगाहः पुद्गलादिसम्बन्धी व्योमसंबन्धी च ततः स उभयोर्धर्मः कथमाकाशस्यैव लक्षणं ? उभयजन्यत्वात्, द्व्यङ्गुलसंयोगवत् । न खलु द्रव्यद्वयजनितः संयोगो द्रव्येणैकेन व्यपदेष्टुं पार्यते लक्षणं चैकस्य भवितुमर्हतीति, सत्यमेतत्, सत्यपि संयोगजन्यत्वे लक्ष्यमाकाशं प्रधानम् ततोऽवगाहनमनुप्रवेशो यत्र तदाकाशमवगाह्यमवगाहलक्षणं विवक्षितं, इतरत्तु पुद्गलादिकमवगाहकम्, यस्मा-द्वयोमैवासाधारणकारणतयावगाह्यत्वेनोपकरोति, अतो द्रव्यान्तरासंभविना स्वेनोपकारेणाती-न्द्रियमपि व्योमानुमेयं, आत्मवत्, धर्मादिवद्वा । यथा पुरुषहस्तदण्डसंयोगभेर्यादिकारणः शब्दो भेरीशब्दो व्यपदिश्यते, भूजलानिलयवादिकारणश्चाङ्कुरो यवाङ्कुरोऽभिधीयते, असाधारणएवमवगाहोऽप्यम्बरस्य प्रतिपत्तव्यः । अवैशेषिकास्तु शब्दलिङ्गमाकाशं (अ). “प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्नीतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना ।” त० वा० ५ / २२ ॥
कारणत्वात्,
( ब ). शब्दोऽम्बरगुणः श्रोत्रग्राह्यः ।” प्रश० भा० व्यो० पृ-६४५ ।
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