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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
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आते होने से वह अपने स्वरुप को धारण करके रखने में समर्थ नहीं है। (अनेकान्तात्माकता में आते विरोधादिदोष) इस अनुसार से है - (१) यदि वस्तु सत् है, तो वही वस्तु असत् किस तरह से होगी? तथा यदि वस्तु असत् हो, तो सत् किस तरह से होगी? (उन दोनो में इस तरह से) विरोध है। क्योंकि सत्त्वधर्म
और असत्त्वधर्म एकदूसरे का परिहार करके ही अपना अस्तित्व धारण करते है। जैसे कि, शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श । अर्थात् जहाँ शीतस्पर्श है, वहाँ उष्णस्पर्श नहीं है और जहाँ उष्णस्पर्श है, वहाँ शीतस्पर्श नहीं है। इसी ही तरह से सत्त्व, असत्त्वधर्म का परिहार करके अपना अस्तित्व सिद्ध करता है। उसी ही तरह से असत्त्व, सत्त्वधर्म का परिहार करके ही अपना अस्तित्व सिद्ध करता है। इसलिए जैसे शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श को एक साथ रहने में विरोध है, वैसे सत्त्व और असत्त्व को भी एकसाथ वस्तु में रहने में विरोध है।
उपरांत, यदि (सत्त्व और असत्त्व का अस्तित्व एकदूसरे का परिहार करके स्थित न हो तो) सत्त्व असत्त्वरुप से और असत्त्व सत्त्वरुप से स्थित बन जायेगा। क्योंकि दोने अपने अस्तित्व में एकदूसरे का परिहार करते न होने से सत्त्व और असत्त्व में कोई विशेषता नहीं रहेगी। दोनो एकरुप बन जायेंगे। उसके योग से “एक मौजूद ( उपस्थित ) है और एक गैरमौजूद ( अनुपस्थित ) है।" इत्यादि प्रतिनियत व्यवहारो का उच्छेद हो जायेगा।
इस अनुसार से नित्यत्व-अनित्यत्व, अभिलाप्य - अनभिलाप्य इत्यादि में भी विरोधदोष आता है, वह सोच लेना । (२) वस्तु के सत्त्वासत्त्वात्मकता का स्वीकार करने में (अर्थात् वस्तु को सत् और असत् उभय स्वरुप से स्वीकार करने में (अर्थात् वस्तु को सत् और असत् उभयस्वरुप से मानने में) "यह वस्तु सत् है या असत् है-ऐसे प्रश्न में निर्णय होता न होने से संशय पैदा होता है। (इस संशय का निराकरण करने के लिए सोचते हुए, वैसे ही दूसरे दोष आते है, वह अब बताये जाते है।) वस्तु जिस अंश से (स्वरुप से) सत् है (वह वस्तु) क्या उसी स्वरुप से सत् ही है या सत्त्व और असत्त्व दोनो ही धर्मोवाली होती है।
यदि "वस्तु जो स्वरुप से सत् है, उसी स्वरुप से सत् ही है।" ऐसा प्रथम पक्ष कहोंगे तो स्याद्वाद की हानी होगी। क्योंकि वस्तु का जो स्वरुप सत् है, उसी स्वरुप से सत् मानने से एकांतवाद हो जायेगा और सर्वथा सत् ही पक्ष मानने से स्याद्वाद किस तरह से टिक सकता है ?
(३) अब यदि "जो स्वरुप से वस्तु सत् है उसी ही स्वरुप से वस्तु सदसत् होती है।" यह द्वितीय पक्ष कहोंगे तो अनवस्था दोष आयेगा। क्योंकि वहाँ भी वह प्रश्न उपस्थित हुआ ही करेगा कि... वस्तु जो रुप से सत् है, उसी स्वरुप से सत् है या सदसत् है ? यदि सत् है तो स्यावाद की हानी और सदसत् है तो वही प्रश्न पुनः उपस्थित होगा। इस तरह से अप्रमाणिकधर्मो की कल्पना करने से अनवस्था दोष आयेगा। ___ उसी ही अनुसार से वस्तु में जो अंश से स्वरुप से भेद है, वही स्वरुप से वस्तु में भेद है या वही स्वरुप से वस्तु में भेदाभेद है? प्रथम पक्ष में स्याद्वाद की हानी है। क्योंकि उसी ही स्वरुप से वस्तु में भेद मानने से एकांतवाद हो जायेगा। और अनेकांतवाद की हानि हो जायेगी। द्वितीय पक्ष में उपर बताये अनुसार से
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