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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
२३९/८६२
प्रयोग : विवादास्पद वस्तु = चर्चा का विषय बनी हुई जगत की समस्त वस्तु एक-अनेक, नित्यअनित्य, सत्-असत्, सामान्य-विशेष, वाच्य-अवाच्य आदि रुप से अनंतधर्मात्मक है । क्योंकि उसी अनुसार से ही (अनंतधर्मात्मक रुप से ही) अबाधितप्रतीति का विषय बनती है। जो पदार्थ जिस स्वरुप से ही अबाधितप्रतीति का विषय बनता है, वह पदार्थ उसी स्वरुप से ही प्रमाण का विषय बनता है। जैसे कि, घट पदार्थ घट स्वरुप से प्रतीति का विषय बनता है। इसलिए वह घट स्वरुप से ही प्रमाण का विषय बनता है, परंतु पटस्वरुप से प्रमाण का विषय बनता नहीं है। उस अनुसार से ही अबाधित प्रतीति का विषय बनती वस्तु है, इसलिए अनंतधर्मात्मक वस्तु ही प्रमाण के विषयके रुप से माननी चाहिए। अर्थात् नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि स्वरुप से ही समस्त पदार्थो का निर्बाधित प्रतिभास होता है। इसलिए समस्त वस्तुए अनेक-एक आदि अनेकान्तात्मक रुप से ही प्रमाण का विषय माननी चाहिए।
हमारा हेतु स्वरुपासिद्ध भी नहीं है। क्योंकि अनंतधर्मात्मकरुप से ही अबाधित प्रतीति का विषय बनती वस्तुएं सर्वत्र विद्यमान है । अर्थात् अनेकान्तात्मकरुप से ही समस्त वस्तुओ का अबाधित प्रतिभास होता है।
द्रव्यरुप से वस्तु एक और नित्य है। पर्याय की दृष्टि से वस्तु अनेक और अनित्य है। स्व-रुप, स्व-क्षेत्र आदि की दृष्टि से वस्तु सदात्मक है, पर-रुप, पर-क्षेत्र आदि की दृष्टि से वस्तु असदात्मक है। सजातीय पदार्थो में एक जैसे अनुवृत्त = अनुगत प्रत्यय का कारण होने से वस्तु सामान्यात्मक है। विजातीय पदार्थो से व्यावृत्ति का कारण होने से (अर्थात् व्यावृत्त प्रत्यय का कारण होने से) वस्तु विशेषात्मक है। (वस्तु के) स्व-पर पर्याय क्रम से शब्दो के द्वारा कहे जा सकते होने से वस्तु अभिलाप्य = वाच्य है। (वस्तु के स्वपर पर्याय युगपत् शब्दो के द्वारा कहे जा सकते न होने से वस्तु अनभिलाप्य अवाच्य है। अर्थात् एक साथ वस्तु के स्व-पर पर्याय कहने के लिए कोई शब्द न होने से वस्तु अवाच्य है। इस तरह से सर्व वस्तु के नित्य, एक आदि अनेक धर्म अस्खलित = निर्बाधितप्रतीति के विषय बनते होने से वस्तु की निर्बाधित प्रतीति किसी को भी असिद्ध नहीं है और इसलिए ही उक्तप्रतीति निर्बाधित रुप से सर्वजन प्रसिद्ध होने से, उसमें संदेह का कोई अवकाश नहीं है। इसलिए ही हमारा हेतु संदिग्धासिद्ध भी नहीं है। ___ हमारा हेतु विरुद्ध भी नहीं है। क्योंकि हेतु द्वारा कोई भी विरुद्ध अर्थ की सिद्धि होती नहीं है। हमारा हेतु साध्य से विरुद्ध अर्थ की सिद्धि करता न होने से विरुद्ध भी नहीं है। सांख्यो के द्वारा परिकल्पित द्रव्यैकान्त सर्वथा नित्यत्व, सौगत अभिमत पर्यायैकान्त सर्वथा अनित्यत्व, (क्षणिकत्व), वैशेषिक और नैयायिक के द्वारा स्वीकृत द्रव्य-पर्याय की एकांत से भिन्नता (तथा द्रव्य, गुण, कर्म आदि की सर्वथा भिन्नता) निर्बाधित प्रतीति का विषय बनती नहीं है, कि जिससे उसके द्वारा हमारा अनेकान्तात्मकता की सिद्धि करने वाला हेतु विरुद्ध बन जायें।
हमारा पक्ष प्रत्यक्षादि प्रमाणो से बाधित भी नहीं है, कि जिससे हेतु (बाधित बनके) अकिंचित्कर बन जाये । अर्थात् वस्तु की अनेकान्तात्मकता किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं है, कि जिससे हेतु अकिंचित्कर (साध्य सिद्धि के लिए निष्क्रिय) बन जाये।
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