________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
१५९/७८२
वा० १/२१९-२२१] ततो मुक्तिमिच्छता पुत्रकलत्रादिकं स्वरूपं चानात्मकमनित्यमशुचि दुःखमिति F-28श्रुतमय्या चिन्तामय्या च भावनया भावयितव्यम्, एवं भावयतस्तत्राभिष्वङ्गाभावादभ्यासविशेषाद्वैराग्यमुपजायते, ततः सास्रवचित्तसंतानलक्षणसंसारविनिवृत्तिरूपा मुक्तिरुपपद्यते । अथ तद्भावनाभावेऽपि कायक्लेशलक्षणात्तपसः सकलकर्मप्रक्षयान्मोक्षो भविष्यतीति चेत् ? न, कायक्लेशस्य कर्मफलतया नारकादिकायसंतापवत् तपस्त्वायोगात्" 29 । विचित्रशक्तिकं च कर्म, विचित्रफलदानान्यथानुपपत्तेः । तञ्च कथं कायसंतापमात्रात् क्षीयते, अतिप्रसङ्गात् । अथ तपःकर्मशक्तीनां संकरेण F-30क्षयकरणशीलमिति कृत्वा एकरूपादपि तपसश्चित्रशक्तिकस्य कर्मणः क्षयः । नन्वेवं स्वल्पक्लेशेनोपवासादिनाप्यशेषस्य कर्मणः क्षयापत्तिः, शक्तिसांकार्यान्यथानुपपत्तेः । उक्तंच-कर्मक्षयाद्धि मोक्षः स च तपसस्तच्च कायसंतापः कर्मफलत्वान्नारकदुःखमिव कथं तपस्तत्स्यात् ।।१।। अन्यदपि चैकरूपं तञ्चित्रक्षयनिमित्तमिह न स्यात् । तच्छक्तिसंकरः क्षयकरीत्यपि वचनमात्रम् ।।२ ।।” तस्मान्नैरा-त्म्यभावनाप्रकर्षविशेषाञ्चित्तस्य निःक्लेशावस्था मोक्षः ।। (अब बौद्धो ने इस विषय में अपना जो अभिप्राय (मत) प्रकट किया है। वह बताते है।) पूर्वपक्ष (बौद्ध) : प्रतिक्षण में नष्ट होनेवाले ज्ञानक्षण के प्रवाह को छोडकर दूसरे किसी आत्मा का अभाव होने से मुक्ति में किस की ज्ञानादि स्वभावता सिद्ध करते हो? (कहने का मतलब यह है कि ज्ञानक्षण के प्रवाह से अतिरिक्त दूसरा कोई आत्मा नहीं है। जब ज्ञानक्षण के प्रवाह का अत्यंत उच्छेद हो जाता है तब मोक्ष होता है। उपरांत, कोई ज्ञान आदि स्वभावो में रहनेवाला अनुयायी आत्मा हो, तो वह मोक्ष में अनंतज्ञानादिस्वभावो को धारण कर लेता। परंतु ज्ञानधारा को छोडकर आत्मा नाम का कोई अतिरिक्त पदार्थ ही नही है, कि वह संभव बने ।)।
वैसे ही वास्तविकता तो यह है, कि आत्मदर्शीयों की = आत्मा की सत्ता माननेवालो की मुक्ति ही हो नहीं सकती। आत्मदर्शीयों की मुक्ति का अभाव इस अनुसार से है - जो स्थिरादिस्वरुप आत्मा को देखता है। अर्थात् जो आत्मा को नित्य रहनेवाला देखता है, उसको आत्मा में स्थिरता-नित्यत्व आदि गुणो के कारण अवश्य स्नेह होगा। अर्थात् आत्मा में स्थिरता नित्यत्व-गुणदर्शननिमित्तक स्नेह अवश्य होगा। और आत्मा के स्नेह (राग) से आत्मा के सुखो में तृप्त होता (सुखो के लिए) प्रयत्न करता होगा। उसके योग से सुखो में और सुख के साधनो में (दोष होने पर भी वे) दोषो की उपेक्षा करके (सुखो और सुख के साधनो में) गुणो का आरोप करता रहेगा। इस तरह से जिसमें दोष है, उसमें भी गुणो को देखनेवाला व्यक्ति (उन सुखो में) तृप्त होता (यह मेरे सुख के साधन है।) ऐसे ममत्वपूर्वक वे साधनो को ग्रहण करता है। उसके योग से पाप का बंध करके संसारपरिभ्रमण करता है। इसलिए जब तक आत्मदर्शन है, तब तक संसार ही है।
(F-28-29-30) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org