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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
संवेदन आत्मा में किस तरह से हो सकता है ? (फिर भी) आत्मा को वस्तु के अभाव का वेदक (अर्थात् वस्तु के अभाव का संवेदन करनेवाला) मानोंगे तो आत्मा को ज्ञानविनिमुक्त माना नहीं जा सकेगा। इसलिए तृतीयपक्ष उचित नहीं है।
इसलिए अभाव अतिरिक्त प्रमाण नहीं है। संभवप्रमाण भी समुदाय से समुदायी के ज्ञान स्वरुप है। बडी चीज से अपने अवयवभूत छोटी वस्तु का अनुमान संभवप्रमाण है। जैसे कि, खारी (= १८ द्रोण प्रमाण) में द्रोण की संभावना है। (वह उसमें समा जाता है।) वह संभव प्रमाण भी अनुमान से पृथक् नहीं है। संभव प्रमाण का अनुमान में अंतर्भाव इस अनुसार से है। "खारी द्रोणवाली है, क्योंकि वह खारी है। जैसे कि, पहले देखी हुई खारी ।"
अनिर्दिष्ट वक्ता के प्रवाद की परंपरारुप ऐतिह्यप्रमाण है। अर्थात् जिनको कहनेवाले वक्ता की किसी को खबर नहीं है, परंतु परंपरा से चला आता प्रवाद = लोकश्रुतियां ऐतिह्य है। जैसे कि.... वृद्धो ने कहा था कि "इस वटवृक्ष में (बरगद में ) यक्ष बसता है।" यह ज्ञान प्रमाणरुप ही नहीं है। क्योंकि वह अनिर्दिष्ट वक्ता के द्वारा बोला गया होने से सांशयिक है। कोई भी वचन (प्रवाद) आगमरुप तब ही बनेगा कि जब वह आप्तपुरुष द्वारा बोला गया हो अर्थात् जो प्रवाद में आप्तवक्ता के द्वारा बोला गया है, ऐसा निश्चय हो, वह प्रवाद ही आगमरुप बनता है।
इन्द्रिय, लिंग और शब्द व्यापार की अपेक्षा के बिना ही अकस्मात् "आज मेरे उपर राजा प्रसन्न होंगे।" ऐसे प्रकार का स्पष्टभान होता है, उसे प्रातिभज्ञान कहा जाता है। यह प्रातिभज्ञान अनीन्द्रियनिबंधन होने से अर्थात् मनोभावना से उत्पन्न हुआ होने से मानसप्रत्यक्ष में अंतर्भूत होता है।
तदुपरांत, आत्मा की प्रसन्नता या अप्रसन्नता आदि लिंग से प्रिय-अप्रिय आदि फल के साथ (पहले) ग्रहण किये हुए अन्यथा - अनुपपत्तिरुप अविनाभाव से उत्पन्न हुआ अस्पष्ट प्रातिभज्ञान अनुमानरुप ही है। जैसे चींटीयों के बील में से बहार आनेरुप लिंग से वृष्टि का अस्पष्टज्ञान होता है, वह अनुमानरुप ही है। (कहने का मतलब यह है कि, जैसे पहले चींटीयो का बील में से बाहर आना और बरसात पडना, यह अविनाभाव ग्रहण किया होने से जब चींटीया बील में से बाहर आये, तब पहले ग्रहण किये हुए अविनाभाव से) वृष्टिका अनुमान किया जाता है। वैसे जब पहले मनकी प्रसन्नता हुई थी, तब इष्ट की प्राप्ति हुई थी और मन की अप्रसन्नता हुई थी तब अनिष्ट की प्राप्ति हुई थी इस अविनाभाव को ग्रहण कीए हुए व्यक्ति को मन की प्रसन्नता या अप्रसन्नता के कारण से इष्ट-अनिष्ट का अस्पष्टप्रातिभज्ञान होता है। वह अविनाभाव के बल से हुआ होने के कारण अनुमानरुप है।) इस प्रकार स्पष्टप्रातिभज्ञान का मानसप्रत्यक्ष प्रमाण में और अस्पष्टप्रातिभज्ञान का अनुमान में समावेश होता होने से प्रातिभज्ञान को स्वतंत्रप्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। ___ इस अनुसार से युक्ति और अनुपलब्धि प्रमाण का, आदि शब्द से विशिष्ट उपलब्धि के जनक ज्ञानात्मक या, अज्ञानात्मक (विशेष के त्यागपूर्वक) सामान्य से सभी पदार्थो को प्रमाण कहा जाता है। उस प्रमाण
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