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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
ज्ञानतोऽपि घटस्य ग्राहकैः सर्वजीवानामनन्तैर्मत्यादिज्ञानैर्विभङ्गाद्यज्ञानैश्च स्पष्टास्पष्टस्वभावभेदेन ग्रहणाद्ग्राह्यस्याप्यवश्यं स्वभावभेदः सम्भवी, अन्यथा तद्ग्राहकाणामपि स्वभावभेदो न स्यात्तथा च तेषामैक्यं भवेत् । ग्राह्यस्य स्वभावभेदे च ये स्वभावाः ते स्वधर्माः । सर्वजीवानामपेक्षयाल्पबहुबहुतराद्यनन्तभेदभिन्नसुखदुःखहानोपादानोपेक्षागोचरेच्छापुण्यापुण्यकर्मबन्धचित्तादिसंस्कारक्रोधाभिमानमायालोभरागद्वेषमोहाद्युपाधिद्रव्यत्वलुठनपतनादिवेगादीनां कारणत्वेन सुखादीनामकारणत्वेन वा घटस्यानन्तधर्मत्वम् । स्नेहगुरुत्वे तु पुरापि स्पर्शभेदत्वेन प्रोचाने । कर्मतश्चोत्क्षेपणावक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणभ्रमणस्यन्दनरेचनपूरणचलनकम्पनान्यस्थानप्रापणजलाहरणजलादिधारणादिक्रियाणां तत्तत्कालभेदेन तरतमयोगेन वानन्तानां हेतुत्वेन घटस्यानन्ताः क्रियारूपाः स्वधर्माः, तासां क्रियाणामहेतुभ्योऽन्येभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परधर्माश्च । सामान्यतः पुनः प्रागुक्तनीत्यातीतादिकालेषु ये ये विश्ववस्तूनामनन्ताः स्वपरपर्याया भवन्ति तेष्वेकद्वित्र्याद्यनन्तपर्यन्तधर्मेः सदृशस्य घटस्यानन्तभेदसादृश्यभावेनानन्ताः स्वधर्माः । विशेषतश्च घटोऽनन्तद्रव्येष्व- परापरापेक्षयैकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा यावदनन्तैर्वा धर्मैर्विलक्षण इत्यनन्तप्रकारवैलक्षण्यहेतुका अनन्ताः स्वधर्माः, अनन्तद्रव्यापेक्षया च घटस्य स्थूलताकृशतासमताविषमतासूक्ष्मताबादरतातीव्रताचाकचिक्यतासौम्यतापृथुतासङ्कीर्णतानीचतोच्चताविशालमुखतादयः प्रत्येकमनन्तविधाः स्युः । ततः स्थूलतादिद्वारेणाप्यनन्ता धर्माः ।
२११/८३४
व्याख्या का भावानुवाद :
I
(अब ज्ञानत: घट की विवक्षा की जाती है ।) ज्ञान की दृष्टि से भी अनंतजीवो के अनंत प्रकार के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि तथा विभंगज्ञानादि - ग्राहकज्ञानो के द्वारा स्पष्ट या अस्पष्ट स्वभाव के भेद से घट का ग्रहण होता है। इसलिए ग्राह्य ऐसे घट के भी स्वभावभेद अवश्य संभवित होते है । कहने का मतलब यह है कि सर्वजीवो के क्षयोपशम की तरतमता के कारण मतिज्ञानादि ज्ञानो की तथा विभंग आदि अज्ञानो की भी तरतमता होती है। इसलिए उस ज्ञान-अज्ञान के अनंता भेद है। वे सभी अनंता ज्ञानो (ग्राहको) का विषय घट बनता है। इसलिए ग्राहकज्ञानो में स्वभाव भेद होने के कारण ग्राह्य घट में भी स्वभावभेद स्वीकार करना ही पडेगा । अन्यथा ( ग्राह्य में भेद नहि मानोंगे तो ग्राहकज्ञानो में भी स्वभावभेद नहीं रहेगा । अर्थात् विषय में भेद स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो ज्ञानो में भी भेद नहि पडेगा । इससे सिद्ध होता है कि, सर्व जीवो के अनंतज्ञानो में स्वभावभेद होने के कारण ग्राह्य ऐसे घट का भी स्वभावभेद है ही । ग्राह्य घट के स्वभावभेद में जो स्वभाव है वे सर्वघट के स्व-धर्म है । अर्थात् ग्राहक अनंतज्ञान की अपेक्षा से ग्राह्यघट में अनंत स्वभाव है और वे सभी उसके स्व-धर्म है ।
सर्व जीवो की अपेक्षा से घट अल्प, बहु, बहुतरादि अनंतभेद से भिन्न-भिन्न सुख-दुःख का कारण बनता
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