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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन
२३१/८५४
अनुभव तो (आंख की बिमारी के कारण हुआ होने से वास्तविक नहीं है। परंतु ) स्खलित स्वरुपवाला भ्रान्त है। इसलिए ही हमने हेतु में "अस्खलित = निर्बाध" विशेषण को दिया है और शुक्लशंख में होता पीतशंख का अनुभव अस्खलितरुप = अभ्रान्तरुप नहीं है, कि जिससे वह भी पूर्वाकारका (पूर्वपर्याय का) विनाश, अजहद् - उत्तराकारका (उत्तर पर्याय का) उत्पाद तथा उन दोनो के बीच का अविनाभाव अर्थात् उन दोनो में दिखाई देती किसी भी प्रकार से नहि तूटनेवाली स्थितिरुप परिणाम से अविनाभाव रख सके।
वैसे ही जीव आदि पदार्थो में हर्ष, शोक, उदासीनता आदि पर्यायो का अनुभव स्खलित - भ्रान्तरुप नहीं है। क्योंकि (पदार्थो में होता प्रतिक्षण परिवर्तन सभी के अनुभवपथ में आता है...) उसमें कोई भी बाधक प्रमाण का अभाव है।
शंका : उत्पाद, विनाश और ध्रुवता, तीनो भी परस्पर भिन्न (= स्वतंत्र) है या अभिन्न है? यदि "वे तीनो परस्पर भिन्न है" ऐसा कहोंगे तो वे तीनो एक वस्तु में किस तरह से रह सकते है? और यदि "वे तीनो परस्पर अभिन्न है"- ऐसा कहोंगे तो एक वस्तु में तीन रुप से किस तरह से रह सकेंगे? अर्थात् तीनो अभिन्न होने के कारण, वे मिलके जब एक ही हो जाते है, तो वस्तु त्रयात्मक किस तरह से कही जा सकती है?
समाधान : आपकी बात उचित नहीं है। क्योंकि हमने कथंचित् भिन्नलक्षणत्वेन वे तीन रुपो का कथंचित् भेद स्वीकार किया है। अर्थात् उत्पादादि तीन रुपो के लक्षण भिन्न-भिन्न होने से उन तीनो में कथंचित् भेद है। (और फिर भी वे तीनो किसी भी वस्तु से भिन्न या परस्परभिन्न उपलब्ध होते नहीं है और एक वस्तु के उत्पाद आदि को दूसरी वस्तु में ले जा सकते नहीं है। इसलिए वे तीनो अभिन्न है और वे तीनो परस्पर भिन्न भी है। क्योंकि वे तीनो के लक्षण भिन्न-भिन्न है -- । अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है -
उत्पाद, विनाश और स्थिति परस्परभिन्न है । क्योंकि उन तीनो के लक्षण भिन्न है। जैसे रसादि के लक्षण भिन्न है। इसलिए वे परस्पर भिन्न है। वैसे उत्पादादि तीनो के लक्षण भी भिन्न होने से वे तीनो परस्पर भिन्न है।
हमारे अनुमान में भिन्नलक्षणत्व हेतु असिद्ध नहीं है। अर्थात् उत्पादादि तीनो के लक्षण भिन्न है, यह हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि.... वे तीनो के लक्षण भिन्न-भिन्न ही है। असत् का आत्मलाभ वह उत्पाद कहा जाता है। अर्थात् पदार्थ पहले जो स्वरुप-से पर्याय से नहीं है, उस स्वरुप का लाभ होना वह उत्पाद कहा जाता है। सत् की सत्ता के वियोग को विनाश कहा जाता है। अर्थात् (विद्यमान पर्यायवाली) वस्तु के विद्यमान पर्याय का वियोग होना उसे विनाश कहा जाता है। द्रव्यरुप से अनुवर्तन को ध्रुवता = स्थिति कहा जाता है। अर्थात् उत्पाद और विनाश होने पर भी द्रव्यरुप से अनुवर्तन अन्वय रहना वह स्थिति कहा जाता है। इस तरह से तीनो के असंकीर्ण (भिन्न-भिन्न) लक्षणो की सभी को प्रतीति होती ही है। इसलिए वे तीनो के लक्षण भिन्न होने से उन तीनो में कथंचित् भेद है ही।
उपरांत, ये उत्पादादि तीन परस्पर निरपेक्ष रुप से भिन्न है ही नहीं । क्योंकि परस्परनिरपेक्ष वस्तुएं आकाशकुसुम की तरह असत् बन जाती है। कहने का मतलब यह है कि, वे उत्पादादि लक्षण की भिन्नता
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