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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
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उक्तमाचाराने-“जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ।” अस्यायमर्थःय एकं वस्तूपलभते सर्वपर्यायैः स नियमात्सर्वमुपलभते, सर्वोपलब्धिमन्तरेण विवक्षितस्यैकस्य स्वपरपर्यायभेदभिवतया सर्वात्मनावगन्तुमशक्यत्वात्, यश्च सर्वं सर्वात्मना साक्षादुपलभते, स एकं स्वपरपर्यायभेदभिन्नं जानाति, अन्यत्राप्युक्तम्-“एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।।१।।" ततः सिद्धं प्रमेयत्वादनन्तधर्मात्मकत्वं सकलस्य वस्तुन इति ।।५५ ।। व्याख्या का भावानुवाद :
वैसे ही, सभी वस्तुयें प्रतिनियत स्वभाववाली होती है। सर्ववस्तुओ में रही हुई प्रतिनियत स्वभावता प्रतियोगि अभावात्मकता के कारण होती है । कहने का मतलब यह है कि... प्रत्येक वस्तु प्रतिनियतस्वभाववाली होती है। वह प्रतिनियत स्वभावता दूसरी वस्तु से भिन्न होने के कारण है। अर्थात् जगत की समस्त वस्तुयें अपने अपने प्रतिनियत स्वरुप में स्थित है, किसी भी वस्तु का स्वरुप दूसरी वस्तुओ से मिलता नहीं आता । इसलिए उस उस वस्तु का स्वरुप अपने-अपने स्वाधीन है। वस्तुओ का यह असाधारण स्वरुप जो वस्तुओसे उसका स्वरुप भिन्न रहता है, वे प्रतियोगिपदार्थो के अभाव बिना हो सकता नहीं है । अर्थात् वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता प्रतियोगि के अभाव के कारण है। इसलिए जब तक प्रतियोगिका ज्ञान होता नहीं है, तब तक अधिकृत वस्तु उस प्रतियोगि के अभाव स्वरुप है, ऐसा तत्त्वतः जाना नहीं जा सकता और उस अनुसार से होने पर ही (अर्थात् वस्तु के यथावस्थित ज्ञान करने के लिए प्रतियोगि का ज्ञान आवश्यक होने पर ही) पटादि पर्याय भी घट के प्रतियोगि होने से उसके ज्ञान बिना घट यथावस्थित रुप से जानने के लिए संभव बनता नहीं है। इसलिए इस अनुसार से पटादि पर्याय भी घट के पर्याय ही है। अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - "जिसकी अनुपलब्धि में जिसकी अनुपलब्धि हो, वह उसका संबंधी है। जैसे कि, घट के रुपादि।" तथा पटादिपर्यायो की अनुपलब्धि में घट की यथावस्थित उपलब्धि होती नहीं है। इसलिए पटादि पर्याय घट के संबंधी है। उपरोक्त अनुमान प्रयोग में हेतु असिद्ध नहीं है। क्योंकि पटादिपर्यायरुप प्रतियोगि के ज्ञान बिना पटादि-अभावात्मक घट के ज्ञातत्वका परमार्थ से अयोग है। अर्थात् पटादिपर्यायरुप प्रतियोगि के ज्ञान के बिना घट में पटादि का अभाव है, ऐसा परमार्थ से ज्ञान हो सकता नहीं है।
इस प्रकार अधिकृतवस्तु के यथावस्थित ज्ञान के लिए प्रतियोगि का ज्ञान आवश्यक है, इसलिए ही भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणपूज्यश्रीने कहा है कि... "जिसको जानने से जिसका ज्ञान होता है और जिसको नहीं जानने से जिसका ज्ञान होता नहीं है, उसे उसके धर्म क्यों न कहे जा सकते ? (कहे ही जा सकेंगे।) जैसे कि घट के रुपादिधर्म ।" इसलिए पटादि पर्याय भी घट के संबंधी ही है। तथा पर-पर्याय का प्रमाण (अधिकृत-वस्तु के) (अ) उद्धृतोऽयम् - तत्वोप० पृ- ९८ । न्यायवा० ता- टी. पृ-३७
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